तुम कृष्ण हो ।
,,,,,,,,,,,,
तुम उन्मुक्त अल्हड़ बेफिक्र
प्रेम की दास्तान हो,
बंद कमरो में पनपती
हवस की भूख नहीं ,
तुम यमुना के तीर की
विरह वेदना की तीस हो
जरूरत की चादर में लिपटा
आलिंगन नहीं,
तुम राधा का समर्पण हो
उसके निश्छल नयन का ग़ुरूर हो
समझौता और पश्चाताप की अग्नि में
जलती हुई भूल नहीं,
तुम बंशी के रन्ध्रों से आह्लादित स्वर
और चहुँ दिशा में विद्यमान प्रेयसी के लबों पर
विश्वास से सजा गीत हो ,
कि वो हर साज पर गाये
हाँ मैं प्रेम में हूँ !!!!!!!!!
क्योंकि तुम कृष्ण हो ।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
ज्योत्स्ना जोशी
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
No comments:
Post a Comment
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments