बचपन के दिन जब भी याद आते हैं तो अक्सर ओ सुन्दर , मनमोहक पहाड़ी की तस्बीर दिलोदिमाग पर छ जाती है | उस वक़्त में इतना समझदार भी नहीं था की उस पहाड़ी पर कुछ लिख कर अपने शब्दों में पिरों दूँ ओ याद ओ सुन्दरता , चलो अब जब अक्ल आये तो मन किया पुरानी यादों को शब्दों में पिरोने का. |
मैं जब भी अपने घर के आँगन में बैठ कर सामने वाली पहाड़ी को देखता तो मन प्रफुलित हो उठता | हर रोज , उस पहाड़ी में कुछ न कुछ नया देखने को मिलता . बगल के गाँव वाले उस पहाड़ी के घने जंगलों के बीच से निकलने वाले ठंडे-ठंडे पानी से अपनी प्यास बुझाया करते.....थे ....
कभी ओ पहाड़ी हरे कपडे पहन कर अपना श्रंगार करती ....तो वहीँ कभी ठण्ड के महीनो में सफ़ेद चादर ओढ़ कर सामने नज़र आती .. कभी पतझड़ के महीनो में पुराने वस्त्रों का परित्याग करती तो वहीँ बसंत के महीनो में फिर रंग - बिरंगे परिधान में नज़र आती ... कभी लाल बुरांस से अपने माथे पर टीका लगाती , तो वही फाल्गुन के महीनों में फ्यूंली के पीले फूलो से सज जाती .......उसका उसका यह दिनचर्या देख के मैं भी ख़ुशी - ख़ुशी अपना काम करता
लेकिन आज जब मैं ठीक उसी जगह से उस पहाडी को निहारता हूँ , तो सब कुछ बदल गया, अब उसमें न वो सुन्दरता है न वो आकर्षण जो की कभी मेरे मन को भाता था....आज तो ओ पहाडी मेरे को घूर - घूर के देखती है .....उसकी उदासी , मायूसी साफ़ दिखाई देती है ......आज तो उसको मनुष्य जाती से नफ़रत सी हो गयी है ...क्योंकि इस लोभी इंसान ने उसको निर्बस्त्र कर दिया अपनी खातिर .....कभी ये न सोचा इसने की कल जिस पहाडी के घने जंगलों के बीच का ठंडा पानी हमारी प्यास बुझाता था . आज ओ भी सूख गया है......कभी जिस जंगलों के पशुओं के लिए चारा लाया करता था ...आज ओ भी नहीं रहा ....कभी जिस पहाडी के घने जंगलों की छांव में बैठ कर अपनी थकान उतरा करता था ....आज वो भी न रहा .....काश ये सब पहले सोचा होता तो आज इतनी दूर न प्यास मिटने के लिए जाना पड़ता . न पशुओं के चारे के लिए .......आखिर ये लोभी इंसान भला उस वक़्त ये क्यों सोचता ............काश उस वक़्त ये इंसान उस पहाडी पर नए नए पेड़ लगा के उस पहाडी का श्रंगार करता तो ये दिन देखने को न मिलते ...........
हंसती हुयी पहाड़ी को खामोश बना डाला
खूबसूरत पहाडी को निर्बस्त्र कर डाला
ये मनुष्य तुने यह क्या कर डाला
गढ़वाल सम्राट" पंवार विपिन चंद्र पाल सिंह
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