बचपन के दिन जब भी याद आते हैं तो अक्सर ओ सुन्दर , मनमोहक पहाड़ी की तस्बीर दिलोदिमाग पर छ जाती है | उस वक़्त में इतना समझदार भी नहीं था की उस पहाड़ी पर कुछ लिख कर अपने शब्दों में पिरों दूँ ओ याद ओ सुन्दरता , चलो अब जब अक्ल आये तो मन किया पुरानी यादों को शब्दों में पिरोने का. |
मैं जब भी अपने घर के आँगन में बैठ कर सामने वाली पहाड़ी को देखता तो मन प्रफुलित हो उठता | हर रोज , उस पहाड़ी में कुछ न कुछ नया देखने को मिलता . बगल के गाँव वाले उस पहाड़ी के घने जंगलों के बीच से निकलने वाले ठंडे-ठंडे पानी से अपनी प्यास बुझाया करते.....थे ....
कभी ओ पहाड़ी हरे कपडे पहन कर अपना श्रंगार करती ....तो वहीँ कभी ठण्ड के महीनो में सफ़ेद चादर ओढ़ कर सामने नज़र आती .. कभी पतझड़ के महीनो में पुराने वस्त्रों का परित्याग करती तो वहीँ बसंत के महीनो में फिर रंग - बिरंगे परिधान में नज़र आती ... कभी लाल बुरांस से अपने माथे पर टीका लगाती , तो वही फाल्गुन के महीनों में फ्यूंली के पीले फूलो से सज जाती .......उसका उसका यह दिनचर्या देख के मैं भी ख़ुशी - ख़ुशी अपना काम करता
लेकिन आज जब मैं ठीक उसी जगह से उस पहाडी को निहारता हूँ , तो सब कुछ बदल गया, अब उसमें न वो सुन्दरता है न वो आकर्षण जो की कभी मेरे मन को भाता था....आज तो ओ पहाडी मेरे को घूर - घूर के देखती है .....उसकी उदासी , मायूसी साफ़ दिखाई देती है ......आज तो उसको मनुष्य जाती से नफ़रत सी हो गयी है ...क्योंकि इस लोभी इंसान ने उसको निर्बस्त्र कर दिया अपनी खातिर .....कभी ये न सोचा इसने की कल जिस पहाडी के घने जंगलों के बीच का ठंडा पानी हमारी प्यास बुझाता था . आज ओ भी सूख गया है......कभी जिस जंगलों के पशुओं के लिए चारा लाया करता था ...आज ओ भी नहीं रहा ....कभी जिस पहाडी के घने जंगलों की छांव में बैठ कर अपनी थकान उतरा करता था ....आज वो भी न रहा .....काश ये सब पहले सोचा होता तो आज इतनी दूर न प्यास मिटने के लिए जाना पड़ता . न पशुओं के चारे के लिए .......आखिर ये लोभी इंसान भला उस वक़्त ये क्यों सोचता ............काश उस वक़्त ये इंसान उस पहाडी पर नए नए पेड़ लगा के उस पहाडी का श्रंगार करता तो ये दिन देखने को न मिलते ...........
हंसती हुयी पहाड़ी को खामोश बना डाला
खूबसूरत पहाडी को निर्बस्त्र कर डाला
ये मनुष्य तुने यह क्या कर डाला
गढ़वाल सम्राट" पंवार विपिन चंद्र पाल सिंह
Thursday, May 28, 2009
पहाड़ के पत्थरों में भी प्राण हैं
बेसुध पड़े पहाड़ पर पत्त्थर,
लगते निष्प्राण हैं,
लेकिन, ऐसा नहीं है,
उनमें बसते भगवान हैं,
जरा, जा कर तो देखो,
जहाँ चार धाम हैं?
पर्वतों के पेट में,
या पीठ पर,
पत्थरों का राज है,
अतीत के गवाह हैं,
क्या हुआ था पहाड़ पर,
पहाड़ों के उठने से पहले,
और बाद में,
जहाँ प्यारा उत्तराखंड आज है,
जानता है हर पहाड़ का पत्थर,
यही तो एक राज है.
देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर जहाँ,
पत्थर पर ब्राह्मी लिपि में लिखा,
अतीत का राज है,
मूक हैं कहते नहीं,
लेकिन, पहाड़ के पत्थरों में,
आज अदृश्य प्राण है.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
28.5.2009
लगते निष्प्राण हैं,
लेकिन, ऐसा नहीं है,
उनमें बसते भगवान हैं,
जरा, जा कर तो देखो,
जहाँ चार धाम हैं?
पर्वतों के पेट में,
या पीठ पर,
पत्थरों का राज है,
अतीत के गवाह हैं,
क्या हुआ था पहाड़ पर,
पहाड़ों के उठने से पहले,
और बाद में,
जहाँ प्यारा उत्तराखंड आज है,
जानता है हर पहाड़ का पत्थर,
यही तो एक राज है.
देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर जहाँ,
पत्थर पर ब्राह्मी लिपि में लिखा,
अतीत का राज है,
मूक हैं कहते नहीं,
लेकिन, पहाड़ के पत्थरों में,
आज अदृश्य प्राण है.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
28.5.2009
फिर मुझे बच्चा बना दो
फिर मुझे बच्चा बना दो!
मैं बहुत छोटा सा हूँ इस बड़ी ख्वाबों की दुनिया में,
माँगता हूँ बस एक नन्ही सी जंगल की कहानी,
और माँ के पहलू में जगह दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
मानता हूँ मैं कि मुझसे, ग़लतियाँ होती बहुत सी,
दे दुहाई भाग्य की मैं, कर्म पर हूँ दोष मड्डता,
पर मुझे कुछ भी ना भाता, ना इधर का ना उधर का,
मेरी सब क़मियाँ मिटा दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
हो गया हूँ जड़,झुका के सर मैं जड़ मूरत के आगे,
विवश लगती हैं मुझे जग की समस्त दर्शनिकता.
थक गया हूँ लड़ते लड़ते मन से अपने.
फिर मुझे लोरी सुना दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
जो हुआ सो हो गया अब आगे देखूं,
जो करूँ शुरूवात, रख इस मंत्र को मैं मुख में अपने,
पर सलाहें,मशविरे, और दुहाई बीते कल की आ पहुँचते लोग सारे चौखट पे मेरी..
ऐसे कटु, वो दर्द यादें, ऐसे कड़वे पल वो सारे, स्मृति में फिर उभर आते.
ऐसे फिर चलने को आगे में आपाहिच हो गया हूँ .
मुझको सबकुछ तुम भुला दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
अपने दिल की बात, आपके दिल तक पहुँचाने की आशा में
आपका मित्र
उमेश गुसाईं
मैं बहुत छोटा सा हूँ इस बड़ी ख्वाबों की दुनिया में,
माँगता हूँ बस एक नन्ही सी जंगल की कहानी,
और माँ के पहलू में जगह दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
मानता हूँ मैं कि मुझसे, ग़लतियाँ होती बहुत सी,
दे दुहाई भाग्य की मैं, कर्म पर हूँ दोष मड्डता,
पर मुझे कुछ भी ना भाता, ना इधर का ना उधर का,
मेरी सब क़मियाँ मिटा दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
हो गया हूँ जड़,झुका के सर मैं जड़ मूरत के आगे,
विवश लगती हैं मुझे जग की समस्त दर्शनिकता.
थक गया हूँ लड़ते लड़ते मन से अपने.
फिर मुझे लोरी सुना दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
जो हुआ सो हो गया अब आगे देखूं,
जो करूँ शुरूवात, रख इस मंत्र को मैं मुख में अपने,
पर सलाहें,मशविरे, और दुहाई बीते कल की आ पहुँचते लोग सारे चौखट पे मेरी..
ऐसे कटु, वो दर्द यादें, ऐसे कड़वे पल वो सारे, स्मृति में फिर उभर आते.
ऐसे फिर चलने को आगे में आपाहिच हो गया हूँ .
मुझको सबकुछ तुम भुला दो!
फिर मुझे बच्चा बना दो!
अपने दिल की बात, आपके दिल तक पहुँचाने की आशा में
आपका मित्र
उमेश गुसाईं
बाटु
बाटु उजाड़ि,
सड़क बणि,
खुद लगणी छ,
वे बाटा की,
कनुकै बिंगौंण,
तुम सणि......
जै बाटा फुंड,
हिटदु हिटदु,
बाळापन का,
दिन बितैन,
पुराणा फीफल की,
चौंरी मा बैठि,
दग्ड़्यौं दगड़ी,
छ्वीं लगैन.
बाटु उजाड़ि........
बिराणा बाटा,
भलु नि हिटणु,
सैणि सड़क,
सभ्यता कू नाश,
अपन्णु बाटु ही भलु छ,
जैमा हिटीक,
आस ही आस.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
27.5.2009
सड़क बणि,
खुद लगणी छ,
वे बाटा की,
कनुकै बिंगौंण,
तुम सणि......
जै बाटा फुंड,
हिटदु हिटदु,
बाळापन का,
दिन बितैन,
पुराणा फीफल की,
चौंरी मा बैठि,
दग्ड़्यौं दगड़ी,
छ्वीं लगैन.
बाटु उजाड़ि........
बिराणा बाटा,
भलु नि हिटणु,
सैणि सड़क,
सभ्यता कू नाश,
अपन्णु बाटु ही भलु छ,
जैमा हिटीक,
आस ही आस.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
27.5.2009
छूटिगि छबिलु रंगीलु पहाड़
जख गोरु चरैन,
खैणा तिम्ला खैन,
देळि देळ्यौं मा चैत,
फ्योंलि का फूल चढैन,
घरया बल्दुन उबरी,
पुंगड़ा भी बैन,
ह्यूंद का मैनों,
कोदा की रोठी खैन,
बग्वाळि का मैना,
रंगमत ह्वैक तब,
जग्दा भैला भिरैन,
बणु बणु मा बैठि,
बाँसुळि बजैन,
चोरी चोरिक कबरी,
काखड़ी मुंगरी भी खैन,
आमू की डाळ्यौं मा,
ढुंग चाड़ु लगैन,
भत्त भ्वीं मा पड्यां,
आम खूब खैन,
ब्वै बाब जब,
बाटु हेरदु रैन,
घौर नि पौन्छ्यौं,
तब ऊ गौं मा भटेन,
अब ऊ दिन कख गैन,
जन्म जू अग्नै भी होलु,
प्यारा उत्तराखण्ड मा,
नि ह्वै सकदी छन,
यी बात........
अहसास होंणु आज भूलौं,
अपणा हाथु सी छट छूटिगी,
पराणु सी प्यारु,
ऊ छबिलु रंगीलु पहाड़.....
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
27.5.2009
खैणा तिम्ला खैन,
देळि देळ्यौं मा चैत,
फ्योंलि का फूल चढैन,
घरया बल्दुन उबरी,
पुंगड़ा भी बैन,
ह्यूंद का मैनों,
कोदा की रोठी खैन,
बग्वाळि का मैना,
रंगमत ह्वैक तब,
जग्दा भैला भिरैन,
बणु बणु मा बैठि,
बाँसुळि बजैन,
चोरी चोरिक कबरी,
काखड़ी मुंगरी भी खैन,
आमू की डाळ्यौं मा,
ढुंग चाड़ु लगैन,
भत्त भ्वीं मा पड्यां,
आम खूब खैन,
ब्वै बाब जब,
बाटु हेरदु रैन,
घौर नि पौन्छ्यौं,
तब ऊ गौं मा भटेन,
अब ऊ दिन कख गैन,
जन्म जू अग्नै भी होलु,
प्यारा उत्तराखण्ड मा,
नि ह्वै सकदी छन,
यी बात........
अहसास होंणु आज भूलौं,
अपणा हाथु सी छट छूटिगी,
पराणु सी प्यारु,
ऊ छबिलु रंगीलु पहाड़.....
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
27.5.2009
भाग की भताग
भाग की भताग छोरी, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
भलि कतै नि होन्दि छ, जवानी की आग,
लग्द बग्द रन्दि सदानी, भाग की भताग,
द्वी दिन की जिंदगी छ, नि लगौण दाग,
भाग की भताग छोरी, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
जिंदगी जंजाळ छ, न मार तू फाळ,
भाग अपणु जू ठीक छ, कर सैन्त समाळ,
बग्त आलु यनु भी, करि ली तू जाग,
भाग की भताग छोरी, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
अपणा हाथु सी ही बण्दु, देख अपन्णु भाग,
होंणी खाणी होन्दु रौ, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
२६.५.२००९
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
भलि कतै नि होन्दि छ, जवानी की आग,
लग्द बग्द रन्दि सदानी, भाग की भताग,
द्वी दिन की जिंदगी छ, नि लगौण दाग,
भाग की भताग छोरी, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
जिंदगी जंजाळ छ, न मार तू फाळ,
भाग अपणु जू ठीक छ, कर सैन्त समाळ,
बग्त आलु यनु भी, करि ली तू जाग,
भाग की भताग छोरी, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
अपणा हाथु सी ही बण्दु, देख अपन्णु भाग,
होंणी खाणी होन्दु रौ, भाग की भताग,
तेरी मुखड़ी देखि मेरी, ज्युकड़ी मा आग,
ज्युकड़ी मा आग, हे ज्युकड़ी मा आग,
ज्यु बोन्नु छ मेरु, तू मैकु तैं जाग.......
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
२६.५.२००९
गढ़वाळी गीतुन
गढ़वाळ का गीतुन,
धीत नि भरेणी,
छोया ढुंग्यौं कू पाणी पीक,
तीस नि बुझेणी.
सम्दोळा कू गीत सुणि,
समधणी दिखेणी,
डिडांळि मा बैठि अफु,
ह्वक्का छ पेणी.
गढ़वाळ की धरती प्यारी,
सुपन्यौं मा दिखेणी,
क्वी भग्यान भ्वीं मा बैठि,
ठण्डु पाणी पेणी.
घौर बिटि आज अयुं,
कैमु यू सवाल,
घौर बोड़ि ऐजा चुचा,
खुदयुं छ गढ़वाल.
हाथुन व्हिस्की पेणा,
माना छन फाळ,
हाथ हाथ आज छयुं,
उत्तराखंड गढ़वाल.
मंगतु दिदा आज देखा,
भंगलोड़ा पड़युं छ,
हाडगौं कू बण्युं पिना,
भ्वीं मा रड़्युं छ.
डांडी कांठ्यौं सी ज्यादा आज,
दारू चमकणी छ,
ब्यौ बारात घौ घरात,
कनि खण खणि छ.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२ २६.५.२००९
धीत नि भरेणी,
छोया ढुंग्यौं कू पाणी पीक,
तीस नि बुझेणी.
सम्दोळा कू गीत सुणि,
समधणी दिखेणी,
डिडांळि मा बैठि अफु,
ह्वक्का छ पेणी.
गढ़वाळ की धरती प्यारी,
सुपन्यौं मा दिखेणी,
क्वी भग्यान भ्वीं मा बैठि,
ठण्डु पाणी पेणी.
घौर बिटि आज अयुं,
कैमु यू सवाल,
घौर बोड़ि ऐजा चुचा,
खुदयुं छ गढ़वाल.
हाथुन व्हिस्की पेणा,
माना छन फाळ,
हाथ हाथ आज छयुं,
उत्तराखंड गढ़वाल.
मंगतु दिदा आज देखा,
भंगलोड़ा पड़युं छ,
हाडगौं कू बण्युं पिना,
भ्वीं मा रड़्युं छ.
डांडी कांठ्यौं सी ज्यादा आज,
दारू चमकणी छ,
ब्यौ बारात घौ घरात,
कनि खण खणि छ.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२ २६.५.२००९
ब्वारी का बोल
सासुन जब सुणिन,
तब कन्दुड़ि फर हाथ धरि,
बोन्न बैठि,
हे ब्वारी,
न बोल मैकु बुरा बोल,
मैं माणदु छौं आज जमानु तेरु,
पर कुछ मर्यादा कू ख्याल कर,
तेरी कुबानी की बातु सुणि सुणिक,
मेरी मुण्डळी मा,
ऊठण लग्युं छ,
मुंडारु अर जर.
नौनियाळ मैंन खौरि खैक,
तंग हाल मा पाळि पोषी,
पढौण लिखौण का खातिर,
नाक की नथुलि बेचि खोसी.
डोला ढस्कैक ल्हयौं त्वै,
अपणा नौना कू,
ज्व थै मेरी आस,
अब सब कुछ तेरु ही छ,
न कर मैकु निराश.
तेरी मैं सासू तू मेरी प्यारी ब्वारी,
कर टौल पात तू,
भलि ब्वारी की अन्वारी,
तब हमारू परिवार सुखि रलु,
खूब खाणी बाणी होलि हमारी.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
२५.५.२००९
तब कन्दुड़ि फर हाथ धरि,
बोन्न बैठि,
हे ब्वारी,
न बोल मैकु बुरा बोल,
मैं माणदु छौं आज जमानु तेरु,
पर कुछ मर्यादा कू ख्याल कर,
तेरी कुबानी की बातु सुणि सुणिक,
मेरी मुण्डळी मा,
ऊठण लग्युं छ,
मुंडारु अर जर.
नौनियाळ मैंन खौरि खैक,
तंग हाल मा पाळि पोषी,
पढौण लिखौण का खातिर,
नाक की नथुलि बेचि खोसी.
डोला ढस्कैक ल्हयौं त्वै,
अपणा नौना कू,
ज्व थै मेरी आस,
अब सब कुछ तेरु ही छ,
न कर मैकु निराश.
तेरी मैं सासू तू मेरी प्यारी ब्वारी,
कर टौल पात तू,
भलि ब्वारी की अन्वारी,
तब हमारू परिवार सुखि रलु,
खूब खाणी बाणी होलि हमारी.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
२५.५.२००९
त्रिया चरित्र
खेती पाती सभला का बाद, अक्स्स्रर गौ माँ, लोग बाग़ गौ का पंचैत चोकमाँ , क्वी तासम त , क्वी चोपड त, क्वी गप-सपमाँ बिल्म्या रैदा छा ! बाजा बाजा खडा ह्वे की , तमसागेर बणी , खिलड़यु थै अप्णि अप्णि रिया दिंदा थकदा नि छा ....
" अअबे - ब्बै..., तै ना , तै चुलौ---- तै ...... अब्बै ---, तै फेक तै .. हां.....! "
बाजा बाजा उकी हरकतों देखी , तासु थै गुस्स्म फेकी बुल्दान " हम नहीं खेलते .. ये.. इन्ही भी देखता और उन्ही भी ..!"
एक कुणम फजित्यु , जैकी उम्र लगभग ५० का करीबन राइ होली वो , आगै भुव्वडमाँ और दगड आग छो सिकुणु ! वी चक्डैत मंडलिमा , गौकु हि , एक भारी छटियु चक्डैत इन्दुरु भी छौ बैठियुँ ! बातु बातुमा वेंन फज्युतु से बोली " बुवाड़ा जी आपै उम्र क्या होली "?
" कनु ?" क्युओ छै पुछुणू .... फज्युतुल बोली !
" न ना .. इनी सुदी छौ पुछ्णू .." इन्दुरुल फिर पूछी .." फिर भी ६० -६५ त, हवेल्या हि ! "
" ४९सओ पुरु हवैगि , ५०सो लग्यु च " तभी आगै चिंगारी उतडेकी फजित्यु का कच्छा पेट घुसिगे ! चम्म खाडू ह्वेकि वो , दुई हत्थोंन कच्छा थै झड़दा झड़दा बोली '' ह्या पडी बैईइ का ..., फुकेगे छो रै....?
" सुकर च बोडा ... सरकारी भांडा बचिगिनी ....निथर , बोडिल कयाली छो त्यारु भैर निकाल .. इन्दुरुल चुस्सकी लेकी बोली ... !"
ये सुणी सबी हैसण बैठी गिनी ! जनि फजित्यु बैठी इन्दुरल फिर सवाल कारी ...
" अछ बोडजी य बतावा .. आपो ब्यो कयात , २५ ३० साल त हवे गे होला .... "
फजित्यु बोली .."--- हां"
" त तुमुल , कभी , त्रिया चरित्र भी देखी या सूणी "
" न भै .. मिनत नत सूणी अर ना कभी देखी ..." फजित्युल जबाब दे !
" त एक काम करया , घोर जान्द्ये बोडीकु बुलया ... " मिल खाणु तब खाण, जब तू , मिथै , त्रिया चरित्र देखैली !" बस अप्णि बात पर अडि जाण .. क्या बिग्या ...! " खैर .. फजित्यु जनी घोर गे बोडिल बोली ...
" चला , हत खुटा धवा .. रसोई सिलैणी चा ! "
वैथै इन्दुरु का बोल याद ऐनी .." खाणु तब खैनी जब बोड़ी तिरया चरित्र देखैली ! "
चुलै साम बैठी वेल बोली ..... " मिन खाणु तब खाण जब तू मी थै तिरया चरित्र देखैली ... !"
जनि वींल सुणी .. वा खोली सी रैगी , कि , ये बुड्य थै आज क्या होइगी ! कन छुई च यु कनु ?
" वीं बोली ... चला खाणु खा ...! "
फजित्यु , अपणी जिद पर अकडी बैठी फिर बोली .. " पैली मी त्रिया चरित्र देखो तब खोलू खाणु "
वा बोली .. " अछू.... 2.., भोल बतोलू ! अबरी खाणु खेल्या ...!
फजित्यु बोली .." सच ! "!
" --- हां भै हां " -- भोल जरूर बतोलू .. चला खाणु खा !" सियु साब , वैल खाणु खाई अर सिग्या !
नौनी कु ससुरु याने समधी जू गाड़ का छा , वो दिन मनी , खबर सार लिणु आज ही पहुंचा ! गाड़ का पास हुणा से चार पांच माछा लेकी आया ! रामा रूमी हवे ! बोडिल याने सम्धणील २ माछोकु छोल बाणाई अर ३ अलग रखी देनी ! खाण का बाद समधी त गया अपण गौ ! बोड्ल , बोडी कु बोली ..
" भोल मथी डांड का पुगडो कुव्वादु बोतूणु जाण सब सामान धेरिदे ! "
अर हां ... " याद राखी..., भोल मिन तब खाणु खाण , जब तू त्तिराया चरित्र देखैली ! "
बोड़ील बोली '---- अछु अछु .....दिखौलू दिखौलू ! "
वा बिनसिरिम उठी, डाँडा गे , अर बाकी माछो थै वख खडे एग्या ! फजित्यु सुबर उठी ! बल्दु लेकी डाँडा गे ! उ थै औरी भी गौका ह्ल्या छा... हैल लगाणा ! एक पुगडा बौणा का बाद , जनी घाम आन बैठी , बोड़ी क्ल्याऊ रुवाटी लेकी वख पौंची ! जनी वेल पुग्ड्म हैलै सियु लगाई ......, सियु का दगड घप एक माछु भैर ..... वो चिल्लाई " .---. हे बीरू, .. हे रामू .. हे दर्शुनु अरे , म्यारा पुगडओ माछा निकला छी ... माछा ! "
बोडिल सया माछु लुछी लुकाई चदरा पेट ध्रौरि बोली " --- हैल लगावा हैल ! " फजित्यु हैल लगोण लगी ! कुछ देरा बाद गप हैकू माछु भैर !, दिखदै वे , वो बोली ... " ----अरे हैकू ??.." वेल समणी क ह्ल्यौ थै आबाज दे
" ---हे राजू , हे दर्शुनु अरे यख आवदी यखअ ....!"
जब तक वो आंदा ..., वे से पैली बोडिल , फिर वो माछु लुछी लुकै दे ! फजित्यू चिलै चिलै बुनू राई
" -- ऐ म्यारा पुगड़ोमा माँ माछा निकलणा छन माछा ! "
ह्ल्युन हैल छोडी , सीधा वेका पुगडौमा पोची पूछी "---- कखछिन भै ... माछा ???? "
वो कुछ बुलुदु , वे से पैली बोडी बोली " -- अरे .. हुँदा त, मी नि दिखुदु ... , कख छा लगया ! वो राजू से बोली ......" '-- दुयुराजी ..., तुमारा भैजी , सुबरलेकी यख ऐनी , सैद .. हर्पणा लगी गे !"
तभी ..दर्शुनुल बोली .. "--- हे भै सच बुनू छै..? माछा छाया की कुछ औरी ... "
फजित्युलू बोली " -- हां भै हां .. माछा छा माछा "
'-- पर , कख छना ! हम भी त दिखा ! "
तभी बोडिल बोली ''--- बेटा ..., फिर द्याखा ..., सी छन माछा - माछा लगया .. मेरी माना त यू थै , घोर .... ली चला ! रओखली वोखाली करला तब जैकी सैद कखी .....!."
सुऊ , तौन बल्द ख्वाला अर फजित्यु थै पकड़ी घोर लेकी आया ! बोडिल रखोलया बुलाऊ ! वेल सबसे पैली क्न्डली का मोट्टा मोट्टा टैर मगैनी , फजित्यु थै नगु कै अर दे दना दन २... क्न्डलील सडको !
अर हरबेर बुनू .. "---अब वोल ....,, क्या छाया ? "
फजित्यु बोले ' --- माछा छा..., माछा ..... औरी क्या ? "
फिर बुनु " ... माछा छा माछा ... !" फिर दे क्न्ड्ली ., क्न्ड्ली वेकी पीट पर दम्मला उप्डि गैनी ! वो पीडा क मारी जब कररहाण बैठि त , बोडी बोली "--- अब बस कारा .. बाकि भ्वोल दिखला ..1"
रात जब फजित्यु सीण बैठि त बोडी बोली "--- पीडा हुणीच त ,तेल लगे दियू !"
'--हां" लगे दे "
तेल लगाद ल्गाद व बोली .."------ तुमल अभी भी तिररया चरित्र नि द्याख .. कि औरी दिख्न्णै! "
बोड़ा बोली " ---- समझिग्यु ...समझिग्यु // " जर्रा उन्कुवाई लगो तेल ! तेल लगाना बाद कन्दली का उठया दमला बैठण लगी ! वे थै आराम आण लगी !
पराशर गौड़
" अअबे - ब्बै..., तै ना , तै चुलौ---- तै ...... अब्बै ---, तै फेक तै .. हां.....! "
बाजा बाजा उकी हरकतों देखी , तासु थै गुस्स्म फेकी बुल्दान " हम नहीं खेलते .. ये.. इन्ही भी देखता और उन्ही भी ..!"
एक कुणम फजित्यु , जैकी उम्र लगभग ५० का करीबन राइ होली वो , आगै भुव्वडमाँ और दगड आग छो सिकुणु ! वी चक्डैत मंडलिमा , गौकु हि , एक भारी छटियु चक्डैत इन्दुरु भी छौ बैठियुँ ! बातु बातुमा वेंन फज्युतु से बोली " बुवाड़ा जी आपै उम्र क्या होली "?
" कनु ?" क्युओ छै पुछुणू .... फज्युतुल बोली !
" न ना .. इनी सुदी छौ पुछ्णू .." इन्दुरुल फिर पूछी .." फिर भी ६० -६५ त, हवेल्या हि ! "
" ४९सओ पुरु हवैगि , ५०सो लग्यु च " तभी आगै चिंगारी उतडेकी फजित्यु का कच्छा पेट घुसिगे ! चम्म खाडू ह्वेकि वो , दुई हत्थोंन कच्छा थै झड़दा झड़दा बोली '' ह्या पडी बैईइ का ..., फुकेगे छो रै....?
" सुकर च बोडा ... सरकारी भांडा बचिगिनी ....निथर , बोडिल कयाली छो त्यारु भैर निकाल .. इन्दुरुल चुस्सकी लेकी बोली ... !"
ये सुणी सबी हैसण बैठी गिनी ! जनि फजित्यु बैठी इन्दुरल फिर सवाल कारी ...
" अछ बोडजी य बतावा .. आपो ब्यो कयात , २५ ३० साल त हवे गे होला .... "
फजित्यु बोली .."--- हां"
" त तुमुल , कभी , त्रिया चरित्र भी देखी या सूणी "
" न भै .. मिनत नत सूणी अर ना कभी देखी ..." फजित्युल जबाब दे !
" त एक काम करया , घोर जान्द्ये बोडीकु बुलया ... " मिल खाणु तब खाण, जब तू , मिथै , त्रिया चरित्र देखैली !" बस अप्णि बात पर अडि जाण .. क्या बिग्या ...! " खैर .. फजित्यु जनी घोर गे बोडिल बोली ...
" चला , हत खुटा धवा .. रसोई सिलैणी चा ! "
वैथै इन्दुरु का बोल याद ऐनी .." खाणु तब खैनी जब बोड़ी तिरया चरित्र देखैली ! "
चुलै साम बैठी वेल बोली ..... " मिन खाणु तब खाण जब तू मी थै तिरया चरित्र देखैली ... !"
जनि वींल सुणी .. वा खोली सी रैगी , कि , ये बुड्य थै आज क्या होइगी ! कन छुई च यु कनु ?
" वीं बोली ... चला खाणु खा ...! "
फजित्यु , अपणी जिद पर अकडी बैठी फिर बोली .. " पैली मी त्रिया चरित्र देखो तब खोलू खाणु "
वा बोली .. " अछू.... 2.., भोल बतोलू ! अबरी खाणु खेल्या ...!
फजित्यु बोली .." सच ! "!
" --- हां भै हां " -- भोल जरूर बतोलू .. चला खाणु खा !" सियु साब , वैल खाणु खाई अर सिग्या !
नौनी कु ससुरु याने समधी जू गाड़ का छा , वो दिन मनी , खबर सार लिणु आज ही पहुंचा ! गाड़ का पास हुणा से चार पांच माछा लेकी आया ! रामा रूमी हवे ! बोडिल याने सम्धणील २ माछोकु छोल बाणाई अर ३ अलग रखी देनी ! खाण का बाद समधी त गया अपण गौ ! बोड्ल , बोडी कु बोली ..
" भोल मथी डांड का पुगडो कुव्वादु बोतूणु जाण सब सामान धेरिदे ! "
अर हां ... " याद राखी..., भोल मिन तब खाणु खाण , जब तू त्तिराया चरित्र देखैली ! "
बोड़ील बोली '---- अछु अछु .....दिखौलू दिखौलू ! "
वा बिनसिरिम उठी, डाँडा गे , अर बाकी माछो थै वख खडे एग्या ! फजित्यु सुबर उठी ! बल्दु लेकी डाँडा गे ! उ थै औरी भी गौका ह्ल्या छा... हैल लगाणा ! एक पुगडा बौणा का बाद , जनी घाम आन बैठी , बोड़ी क्ल्याऊ रुवाटी लेकी वख पौंची ! जनी वेल पुग्ड्म हैलै सियु लगाई ......, सियु का दगड घप एक माछु भैर ..... वो चिल्लाई " .---. हे बीरू, .. हे रामू .. हे दर्शुनु अरे , म्यारा पुगडओ माछा निकला छी ... माछा ! "
बोडिल सया माछु लुछी लुकाई चदरा पेट ध्रौरि बोली " --- हैल लगावा हैल ! " फजित्यु हैल लगोण लगी ! कुछ देरा बाद गप हैकू माछु भैर !, दिखदै वे , वो बोली ... " ----अरे हैकू ??.." वेल समणी क ह्ल्यौ थै आबाज दे
" ---हे राजू , हे दर्शुनु अरे यख आवदी यखअ ....!"
जब तक वो आंदा ..., वे से पैली बोडिल , फिर वो माछु लुछी लुकै दे ! फजित्यू चिलै चिलै बुनू राई
" -- ऐ म्यारा पुगड़ोमा माँ माछा निकलणा छन माछा ! "
ह्ल्युन हैल छोडी , सीधा वेका पुगडौमा पोची पूछी "---- कखछिन भै ... माछा ???? "
वो कुछ बुलुदु , वे से पैली बोडी बोली " -- अरे .. हुँदा त, मी नि दिखुदु ... , कख छा लगया ! वो राजू से बोली ......" '-- दुयुराजी ..., तुमारा भैजी , सुबरलेकी यख ऐनी , सैद .. हर्पणा लगी गे !"
तभी ..दर्शुनुल बोली .. "--- हे भै सच बुनू छै..? माछा छाया की कुछ औरी ... "
फजित्युलू बोली " -- हां भै हां .. माछा छा माछा "
'-- पर , कख छना ! हम भी त दिखा ! "
तभी बोडिल बोली ''--- बेटा ..., फिर द्याखा ..., सी छन माछा - माछा लगया .. मेरी माना त यू थै , घोर .... ली चला ! रओखली वोखाली करला तब जैकी सैद कखी .....!."
सुऊ , तौन बल्द ख्वाला अर फजित्यु थै पकड़ी घोर लेकी आया ! बोडिल रखोलया बुलाऊ ! वेल सबसे पैली क्न्डली का मोट्टा मोट्टा टैर मगैनी , फजित्यु थै नगु कै अर दे दना दन २... क्न्डलील सडको !
अर हरबेर बुनू .. "---अब वोल ....,, क्या छाया ? "
फजित्यु बोले ' --- माछा छा..., माछा ..... औरी क्या ? "
फिर बुनु " ... माछा छा माछा ... !" फिर दे क्न्ड्ली ., क्न्ड्ली वेकी पीट पर दम्मला उप्डि गैनी ! वो पीडा क मारी जब कररहाण बैठि त , बोडी बोली "--- अब बस कारा .. बाकि भ्वोल दिखला ..1"
रात जब फजित्यु सीण बैठि त बोडी बोली "--- पीडा हुणीच त ,तेल लगे दियू !"
'--हां" लगे दे "
तेल लगाद ल्गाद व बोली .."------ तुमल अभी भी तिररया चरित्र नि द्याख .. कि औरी दिख्न्णै! "
बोड़ा बोली " ---- समझिग्यु ...समझिग्यु // " जर्रा उन्कुवाई लगो तेल ! तेल लगाना बाद कन्दली का उठया दमला बैठण लगी ! वे थै आराम आण लगी !
पराशर गौड़
Sunday, May 24, 2009
Great Garhwali Personality-3
Mahachand Padma : The First Garhwali Shilpkar I A S
Adaptation: Bhishma Kukreti
Garhwalis will always remember Late Mahachand Padma for his industriousness and his oath to provide a pride to Shilpkar of Garhwal. By being first Garhwali shilpkar as I A S .
Mahachand was born on 8th July , 1937, in village Oad Gaon (Arya Nagar) , patti-Piglapakha, British Garhwal (Pauri Garhwal). His father’s name was Veer Singh and mother’s name was Raduli Devi. The family profession of Veer Singh was constructing the building (Oad).
After passing fourth standard (on that time fourth standard was called primary) from Mahadev Sain, Maha Chand Padma was sent to Jahri Khal (near Lainsdown) for further study and he was brilliant who passed middle standard (7th standard) by first class. Though the economical condition of veer Singh was not so strong but looking the brilliancy of bright boy Mahanchand, his parents sent him to Dehradun for further study and he took admission in Mission School Dehradun . The economical adverse conditions did not become obstacle for Mahachand . He passed twelfth (Intermediate) from Mission School Dehradun
Young Mahachand was ambitious, industrious and futuristic too . He wanted to study further from D. A. V. College Dehradun but the family economic condition did not allow him to take admission in B A in D. A .V. College Dehradun
. Mahachand got job in Public Works Department as Upper division Clerk (UDC).
When D. A. V . College started morning classes for B A students, Mahachand took admission in B. A. in D .A.V.College and passed the degree.
In 1960, he married to Sushila (daughter of Butha Singh), who was also High School pass Shilpkar girl. In 1960, a girl from Shilpkar family was rarest most incident.. His wife Sushila became inspirational force for him and he passed LLB after marriage.
In 1964, he passed I. A. S . exam and became first Shilpkar I .A.S. officer of Garhwal.
He was selected for Himachal Cadre (H.A S). Mahachand worked as S.D.M, Upper Secretary, A.D.C and lastly as Director in Indian the government services.
He expired on 2nd July 1979 as blood cancer patient at the mere age of forty-one only.
H e was simple and courtesies person and his colleagues and subordinates liked him very much
We Garhwwalis salute him for enhancing our pride and the self-esteem of Shilpkar worls of Garhwal
Courtesy : Arya, Vinod, 2009,Uttarakhand ka Upekhshit Samaj aur Uska Sahitya, New Krishna printers, Lucknow, pp-10-13
@ Copyright: Bhishma Kukreti, Mumbai, May 2009
Adaptation: Bhishma Kukreti
Garhwalis will always remember Late Mahachand Padma for his industriousness and his oath to provide a pride to Shilpkar of Garhwal. By being first Garhwali shilpkar as I A S .
Mahachand was born on 8th July , 1937, in village Oad Gaon (Arya Nagar) , patti-Piglapakha, British Garhwal (Pauri Garhwal). His father’s name was Veer Singh and mother’s name was Raduli Devi. The family profession of Veer Singh was constructing the building (Oad).
After passing fourth standard (on that time fourth standard was called primary) from Mahadev Sain, Maha Chand Padma was sent to Jahri Khal (near Lainsdown) for further study and he was brilliant who passed middle standard (7th standard) by first class. Though the economical condition of veer Singh was not so strong but looking the brilliancy of bright boy Mahanchand, his parents sent him to Dehradun for further study and he took admission in Mission School Dehradun . The economical adverse conditions did not become obstacle for Mahachand . He passed twelfth (Intermediate) from Mission School Dehradun
Young Mahachand was ambitious, industrious and futuristic too . He wanted to study further from D. A. V. College Dehradun but the family economic condition did not allow him to take admission in B A in D. A .V. College Dehradun
. Mahachand got job in Public Works Department as Upper division Clerk (UDC).
When D. A. V . College started morning classes for B A students, Mahachand took admission in B. A. in D .A.V.College and passed the degree.
In 1960, he married to Sushila (daughter of Butha Singh), who was also High School pass Shilpkar girl. In 1960, a girl from Shilpkar family was rarest most incident.. His wife Sushila became inspirational force for him and he passed LLB after marriage.
In 1964, he passed I. A. S . exam and became first Shilpkar I .A.S. officer of Garhwal.
He was selected for Himachal Cadre (H.A S). Mahachand worked as S.D.M, Upper Secretary, A.D.C and lastly as Director in Indian the government services.
He expired on 2nd July 1979 as blood cancer patient at the mere age of forty-one only.
H e was simple and courtesies person and his colleagues and subordinates liked him very much
We Garhwwalis salute him for enhancing our pride and the self-esteem of Shilpkar worls of Garhwal
Courtesy : Arya, Vinod, 2009,Uttarakhand ka Upekhshit Samaj aur Uska Sahitya, New Krishna printers, Lucknow, pp-10-13
@ Copyright: Bhishma Kukreti, Mumbai, May 2009
Garhwali Poet-11
Chinmay Sayar : The poet of philosophy and tenderness
Bhishma kukreti
Surendra Singh Chauhan alias cinmay sayar was born in a remoyte village Andarsaun, Dabari, Bichhala Badalpur, Pauri garhwal on 17 January 1948.
His father name was late Shri Khushhal Singh Chauhan.
He is M.A . in history and diploma in education
His younger life have been very struggle some . He worked as worker in factories of Mumbai (he used to live in menhaden, Jogeshwari east), Faridabad, Delhi and Bokaro for many years. He was not made for urban and non-emotional life . By nature he is simple, rough, straightforward, rural bias, wish to live near nature and rebellion too. This author is witness about his straightforwardness. Once this author had sever conflict with famous and the only one Garhwali language critic Bhagwati Prasad Nautiyal . The author said that Bhagawti Prasad Nautiyal does not know Garhwali at all, he is copycat of Hindi ‘samlochana’ concept and Nautiyal should leave writing in Garhwali. This author provided proof of each word used by B P Nautiyal in eight nine of articles . The author wrote letters about his thinking that Bhagwati Prasad is diluting Garhwali by using Hindi words though for those words Garhwali words were available. The author sent letter to Sayar too. Sayar answered in straight language that “ You Brahmins will make fool of Rajput like and I am not interested in conflict of you both (Brahmins)”. This is the proof of his simplicity and straightforwardness.
He is not afraid of conflict with his fellow. The author had good relation with Chinmaya Sayar through letter communication. Once this author wrote him in satirist mood about using titli (butterfly) instead of potal (butterfly). He criticized the author left and right about author’s ignorance for meaning of potal and titli. For Surendra chauhan alias Chinmay truth is more important than friendship or permanent relationship. Sayar does not believe in mincing the words.
He has very significant place in Garhwali poetry of eighties till date. Sayar might have written more than thousand poems in Garhwali language but financial situation of Garhwali creative does not permit to publish the literature in book forms.
We find two Garhwali language poetry collections of chinmay sayar . Paseen ki Khusboo and ‘Timala Phool’. most of his poems are having complete philosophical touch . His poems are combination of ‘udaseenata’ moksha, nirvan and inner energy. This inner energy with indifference, neutrality, dejection is a speciality of Sayar’s poetry. Chinmaya is only one Garhwali language poet who could create such type of poetry and Bhagawati Prasad Nautiyal rightly says that Chinmaya is one and only one to create such poems and he got specific recognition among all Garhwali language poets of past and present.
timala phhol has 62 poems and all are representative of Chinmay sayar
He uses symbols and images of Garhwal for spreading his wing and uses many proverb in his poems too. Sayar also craetes many his won words to complete his verse as “ darudya, ajkyun, sonaali, hladyan, Nidaleen, rastagir ( Bhagwati prasad Nautiyal, Chitthi patri, July, 1999)
On the whole, the poems of Chinmaya Sayar are full of philosophy, dejection with inner energy, inspirational, many poems create hopelessness too, shows light to the society and individuals .
Those interested in his poems can contact him
Surendra Chauhan chinmaya sayar
Village -Andarsaun
P.O -Dabari
Bichhala badalpur
Pauri garhwal
Uttarakhand
@ Copyright Bhishma Kukreti, Mumbai/May.2009
Bhishma kukreti
Surendra Singh Chauhan alias cinmay sayar was born in a remoyte village Andarsaun, Dabari, Bichhala Badalpur, Pauri garhwal on 17 January 1948.
His father name was late Shri Khushhal Singh Chauhan.
He is M.A . in history and diploma in education
His younger life have been very struggle some . He worked as worker in factories of Mumbai (he used to live in menhaden, Jogeshwari east), Faridabad, Delhi and Bokaro for many years. He was not made for urban and non-emotional life . By nature he is simple, rough, straightforward, rural bias, wish to live near nature and rebellion too. This author is witness about his straightforwardness. Once this author had sever conflict with famous and the only one Garhwali language critic Bhagwati Prasad Nautiyal . The author said that Bhagawti Prasad Nautiyal does not know Garhwali at all, he is copycat of Hindi ‘samlochana’ concept and Nautiyal should leave writing in Garhwali. This author provided proof of each word used by B P Nautiyal in eight nine of articles . The author wrote letters about his thinking that Bhagwati Prasad is diluting Garhwali by using Hindi words though for those words Garhwali words were available. The author sent letter to Sayar too. Sayar answered in straight language that “ You Brahmins will make fool of Rajput like and I am not interested in conflict of you both (Brahmins)”. This is the proof of his simplicity and straightforwardness.
He is not afraid of conflict with his fellow. The author had good relation with Chinmaya Sayar through letter communication. Once this author wrote him in satirist mood about using titli (butterfly) instead of potal (butterfly). He criticized the author left and right about author’s ignorance for meaning of potal and titli. For Surendra chauhan alias Chinmay truth is more important than friendship or permanent relationship. Sayar does not believe in mincing the words.
He has very significant place in Garhwali poetry of eighties till date. Sayar might have written more than thousand poems in Garhwali language but financial situation of Garhwali creative does not permit to publish the literature in book forms.
We find two Garhwali language poetry collections of chinmay sayar . Paseen ki Khusboo and ‘Timala Phool’. most of his poems are having complete philosophical touch . His poems are combination of ‘udaseenata’ moksha, nirvan and inner energy. This inner energy with indifference, neutrality, dejection is a speciality of Sayar’s poetry. Chinmaya is only one Garhwali language poet who could create such type of poetry and Bhagawati Prasad Nautiyal rightly says that Chinmaya is one and only one to create such poems and he got specific recognition among all Garhwali language poets of past and present.
timala phhol has 62 poems and all are representative of Chinmay sayar
He uses symbols and images of Garhwal for spreading his wing and uses many proverb in his poems too. Sayar also craetes many his won words to complete his verse as “ darudya, ajkyun, sonaali, hladyan, Nidaleen, rastagir ( Bhagwati prasad Nautiyal, Chitthi patri, July, 1999)
On the whole, the poems of Chinmaya Sayar are full of philosophy, dejection with inner energy, inspirational, many poems create hopelessness too, shows light to the society and individuals .
Those interested in his poems can contact him
Surendra Chauhan chinmaya sayar
Village -Andarsaun
P.O -Dabari
Bichhala badalpur
Pauri garhwal
Uttarakhand
@ Copyright Bhishma Kukreti, Mumbai/May.2009
Great Garhwali Personalities of Uttarakhand -1
Great Garhwali Personalities of Uttarakhand -1
Jeet Singh Negi: First Garhwali singer of gramophone and Akashvani
Adaptation -Bhishma Kukreti
“ Too wheli Beera uchi nisi dandyun man ghasiyaryun ka bhesh man…” stirred so much the insight of Uttrakhand written by Jeet Singh Negi that not only common men but even the knowledgeable Uttarakhandis perceive that this famous song is folk song .
A couple of few people knew that Jeet Singh Negi created this song on the road, Agara road, Bhandup , Mumbai at around 11PM. This author is fortunate that he listened the autos-story of Jeet Singh Negi about creation of this song by Jeet Singh himself at the residence of Mrs Pushpa Dobhal and her husband Professor Radha Ballabh Dobhal, Garhwal Darshan, Mumbai. Professor Dobhal have the recorded tape told the story of creation of ‘too wheli beera…” by Negi .
He was the initiator of creating Garhwali song, singing, performing cultural shows in various parts of India
I tried for searching on the net about complete biography of Jeet Singh Negi. However, my surprise that nothing much is written about this great personality of India in web-world.
This write up is to provide full honor to a legendary creative ever born in Uttarakhand.
It is Negi’s popularity that census department (jangana vibhag) of government of India (1961) in its Vol.XV, Uttar Pradesh, Part V, Gramya Survekhsan, page48, describes the popularity of song “too wheli beera…”
Great Uttarkhandi personality Govindh Ballabh Pant was fond of the talent of Negi and he used to call jeet Singh Negi for performing of welcoming cultural show before foreign delegates as cultural show by Negi’s troop before Chines delegate, when Pant was home minister of India.
Father-----Sultan Singh Negi
Date of Birth: ----27February, 1927
Place of birth or village: Village-Ayal, Paidalsyun,Pauri Garhwal
Present address----108/12,Dharmapur, Dehradun
Education---
Primary education---Myanmar (Burma)
High school in Pauri and d A V College Dehradun
Garhwali literature or creativity Published :
Geet Ganga (Song collection)
Jaul Mangari (Song Collection)
Chham Ghungru Bajala (Song Collection)
Maleth ki Kool (Historical musical drama (geet natika )
Bhair Bhool (social musical drama)
Manuscript ready for publication:
Jeetu Bugdwal (historical musical play)
Raju Postman (Drama)
Rami baurani (Musical play)
Unpublished Hindi work
Pativrata Rami (Drama form)
Raju Postman (Drama)
Dramas staged by Negi and his troop
1- Bhari Bhool: Staged in, 1952, damodar hall, Mumbai in the program of Garhwal Bhratri Mandal . The play was instant hit and the drama stirred not only the mind set of migrated Garhwali Mumbakrs but across the India, migrated Garhwali became aware about the importance of drama in their cultural programs. The dialogues are in hindi and Garhwali and that was the unique experiencing point (UEP) , Jeet Singh Negi was conceptulizer, writer, director and stage manger of Bhair Bhool. Bhari Bhool is a mile stone in the history of Garhwali stage and cultural programs. Himalaya Kala Sangam, Delhi staged this drama in 1954-55. Later on this drama was stage many places and many times. Sudharani a research scholar of Garhwali drama writes, “ Is natak ko dekhne sabhi jagah darshak toot pade and this was the reason that Lalit Mohan thapliyal entered in Garhwal drama taking leave from Hindi drama.
2-Maletha Ki Kool: This is historical drama and based on famous Maletha canal built by Chief of army staff of Garhwali a sovereign kingdom, the winning warrior of Tibet and father of brave bhud Gajendra Singh Madho singh Bhandari . The dram is staged 18 (eighteen ) times in Dehradun, Mumbai, Delhi, Chandigarh, Mussorie, Tihri and many places. Jeet singh Negi wrote and directed this drama.
3-Jeetu Bagdwal: Jitu Bagdwal is famous folk lore of Garhwal. Jeetu Bagdwal was a brilliant flute player. Singh wrote the musical drama on this folk lore and more than eith times this melodious drama is staged at various places under his direction, stage administration.
4-Pativrata Rami: Parvatiya Munch Delhi staged the Hindi drama Rami Baurani conceived and created by Jeet Singh Negi in 1956 and staged many times.
5-Rami : At the occasion of Tagore centurion year , Rami a Garhwali musical drama (geet natika ) was staged first in Narendra Nagar in 1961 . Later on more than hundred of stage shows have been all across India.
6-Raju Postman: This is a Dhabadi Garhwali drams and dialogues are mixed Hindi and Garhwali. Raju Poastman Garhwal sabha Chandigarh staged this dhabadi drama first and more than ten times this drama is staged
7-Relays from Akashvani : His first Garhwali song was relayed from Akashvani in 1954. His dramas and songs are relayed more than six hundred times and it is great achievement for any regional language artist. Jeetu Bagdwal and Maletha ki Koo the radio-geet-natika are also relayed more than fifty times from Akashvani
8-Relay from Doordarshan: The Hindi version of Rami was relayed by Delhi Doordarshan
Achievements fo Jeet Singh Negi
1-He is called swar samrat. He collected many lost Garhwali folk music methodologies notes and preserved the for our future . . He also showed many Garhwali music instruments to our generation and showed that our conventional instruments are important to create Garhwali music . Jeet Singh Negi is great admirer of late kasha Anuragi the expert of dhol Sagar .
2-Jeet Singh Negi is first Garhwali folk singer whose six songs were recored by His master Voice (HMV) in 1949
Cultural Activities
1942- Started cultural programs, staging dramas, and singing programs in Pauri city
1954: Worked as assistant director in Khalifa and Chaudaheen Rat (Hindustani Movies) in Mumbai
1954: He worked as Deputy Music Director in National Gramophone Company , Mumbai
1955 : First Garhwali Song Batch Singer in Akashvani Delhi
1955 ; Directed cultural program in Raghumal Arya Girls School, Delhi
1955: Lead the cultural show before Chinese Foreign delegates in Kanpur
1955-56: was connected with cultural programs of Sarswati Maha Vidyalaya Delhi
1955: Sung Garhwal land reform related progressive songs at Garhwali progressive front conference in Delhi
1956, Lead the Garhwali Cultural Team for participating in Parvteeya Lok Geet program , Delhi, inaugurated by Indian Home minister Govind Ballabh Pant
1956: Participated and sung in Buddha Jayanti program in Lansdown
1956; All India tour for organizing Garhwali musical and cultural programs in many cities
1956: Uttarapradesh lok Sahitya Sameeti Lucknow recorded those songs which were created sung and provided music by him only
HMV Mumbai recorded his song (music by him) in 1956 and 1964
1957: Participated and lead the singers and Garhwali cultural team in the program of Uttar Pradesh Suchana Vibhag and Lok Sahitya samitee, Lucknow
1957: Participated in first Greesma kalin festival, Lainsdown
1960-He represented and led the Garhwali cultural team in participating in historical Viraat Sanskrit Sammelan Dehradun and later, Negi Ji on became secretary of this organization
1962-He organized and participated with zeal in Parvatiya Sanskritik Sammelan
Trained the child artists for participating as Garhwali performers for collecting money for Rashtriya Surakhsa Kosh through Harijan Sevak Sangh Dehradun
1964-Organized a famous Garhwali cultural show for arijan Sevak Sangh in Shrinagar Garhwal
1966- Led the Garhwali cultural team for participating in cultural program of Garhwal Bhratri Mandal Mumbai
1970- Member of organizing body of Sharad Utsav Mussurie
1972-Led the cultural team of Dehradun for Garhwal Sabha Moradabad
1976- Trained the local Mumbai performing team for the cultural show of Garhwal Bhratri Mandal Mumbai. In Garhwali society, this is historic moment that local performers Mumbaikars came out on the stage
1979- Led the cultural team at occasion of inauguration of Door Darshan TV tower in Mussorie
1979-Particpated by staging cultural program in Central Defence Account Sahtabdi celebration , Dehradun
1979-lded the Garhwali cultural team for Sharadotsava in Mussorie
1980-Staged a Garhwali cultural show in Chandigarh for Garhwal sabha
Organized piratical Kala manch Dehradun and staged four Garhwali cultural shows in that year
1982-Staged a cultural show in Chandigarh
Selected secretary of piratical kala manch
1986 Presided Garhwali Kavi Sammelan Kanpur
1987 led the Garhwali cultural team for participating in Uttar Madhya Sanskrit sammelan of Government of India in Allahabad
One of the organizer of cultural program in Rashtriya Drishtibadharth sans than Dehradun
Garhwali Movies
He wrote dialogues and song for Meri Pyari Bwai
Total creation of Cithara (Video cassette ) of Rami and maletha Ki Kool
Wrote song for Samaun (till now, un-exhibited )
Awards /Appreciations
1955-Raghumal Arya Kanya Pathshala
1956-Garhwal sabha , Dehradun
1956 District Magistrate Dehradun for program in Prantiya Raksha dal
1956-Parvitiya jan vikash delhi
1956 Sarswati mahavidyalaya Delhi
1957 Prashastrti patra by Bhagta Darshan (MP) and Naredndra Dev Sgashtri (MLA)
1958, Parvatiya Sanskritik sammelan Dehradun
1962 Lok Vidyalaya Chamoli awarded hi by“ Lokaral’award
1970, himalaya kala sngh awarded him for Maletha ki Kool
1979, Central Defense Account Department Dehradun awarded him for his contribution in promoting cultural program
1980-Akshvani Naziabad awarded as “Lok Sangeet Swar”
1984, Doon memoranda club
Vishishtha samman
1990, Gadhratna, by garhwal Bhratri Mandal Mumbai
1995 Academy award by uttar Pradesh sangeet Academy of Uttar Pradesh government
1995, Doon Ratna by Nagrik Parishad SanshthanDehradun
1999, Meeel ka Pathar award by Uttarakhand Mahotsava Dehrdun
2000, First “ mohan Upreti lok Sanskriti Puruskar” by Almora sangh
2003, Eighteen social organizations of Dehradun facilitated him by “ samuhik Nagrik Abhnandan ”
Uttaranchal government
2007, New Tihri club facilitated him on 25/5/2007
His relation with social and cultural organization
Manonranjan Club Pauri
Shail Suman Mumbai
Himalaya kala sangam Delhi
Parvtiya jan kalyan samitee Delhi
Garhwal Bhratri Mandal Mumbai
Himalaya Kala sangam Dehradun
Parvatiya Sanskrit sammelan
Sarswati mahvidyalaya Delhi
Garhwal Sabha dehradun
Garhwal ramleela parishad Dehradun
Garhwali Sahitya mandal Delhi
Uttar Pradesh Harijan Samaj Dehradun
Bharat Sevak Samaj
Curtsey by Hilliwood News , Mussorie, Vars-1, edition-4th,March, 2009, pages 8-1)
Jeet Singh Negi: First Garhwali singer of gramophone and Akashvani
Adaptation -Bhishma Kukreti
“ Too wheli Beera uchi nisi dandyun man ghasiyaryun ka bhesh man…” stirred so much the insight of Uttrakhand written by Jeet Singh Negi that not only common men but even the knowledgeable Uttarakhandis perceive that this famous song is folk song .
A couple of few people knew that Jeet Singh Negi created this song on the road, Agara road, Bhandup , Mumbai at around 11PM. This author is fortunate that he listened the autos-story of Jeet Singh Negi about creation of this song by Jeet Singh himself at the residence of Mrs Pushpa Dobhal and her husband Professor Radha Ballabh Dobhal, Garhwal Darshan, Mumbai. Professor Dobhal have the recorded tape told the story of creation of ‘too wheli beera…” by Negi .
He was the initiator of creating Garhwali song, singing, performing cultural shows in various parts of India
I tried for searching on the net about complete biography of Jeet Singh Negi. However, my surprise that nothing much is written about this great personality of India in web-world.
This write up is to provide full honor to a legendary creative ever born in Uttarakhand.
It is Negi’s popularity that census department (jangana vibhag) of government of India (1961) in its Vol.XV, Uttar Pradesh, Part V, Gramya Survekhsan, page48, describes the popularity of song “too wheli beera…”
Great Uttarkhandi personality Govindh Ballabh Pant was fond of the talent of Negi and he used to call jeet Singh Negi for performing of welcoming cultural show before foreign delegates as cultural show by Negi’s troop before Chines delegate, when Pant was home minister of India.
Father-----Sultan Singh Negi
Date of Birth: ----27February, 1927
Place of birth or village: Village-Ayal, Paidalsyun,Pauri Garhwal
Present address----108/12,Dharmapur, Dehradun
Education---
Primary education---Myanmar (Burma)
High school in Pauri and d A V College Dehradun
Garhwali literature or creativity Published :
Geet Ganga (Song collection)
Jaul Mangari (Song Collection)
Chham Ghungru Bajala (Song Collection)
Maleth ki Kool (Historical musical drama (geet natika )
Bhair Bhool (social musical drama)
Manuscript ready for publication:
Jeetu Bugdwal (historical musical play)
Raju Postman (Drama)
Rami baurani (Musical play)
Unpublished Hindi work
Pativrata Rami (Drama form)
Raju Postman (Drama)
Dramas staged by Negi and his troop
1- Bhari Bhool: Staged in, 1952, damodar hall, Mumbai in the program of Garhwal Bhratri Mandal . The play was instant hit and the drama stirred not only the mind set of migrated Garhwali Mumbakrs but across the India, migrated Garhwali became aware about the importance of drama in their cultural programs. The dialogues are in hindi and Garhwali and that was the unique experiencing point (UEP) , Jeet Singh Negi was conceptulizer, writer, director and stage manger of Bhair Bhool. Bhari Bhool is a mile stone in the history of Garhwali stage and cultural programs. Himalaya Kala Sangam, Delhi staged this drama in 1954-55. Later on this drama was stage many places and many times. Sudharani a research scholar of Garhwali drama writes, “ Is natak ko dekhne sabhi jagah darshak toot pade and this was the reason that Lalit Mohan thapliyal entered in Garhwal drama taking leave from Hindi drama.
2-Maletha Ki Kool: This is historical drama and based on famous Maletha canal built by Chief of army staff of Garhwali a sovereign kingdom, the winning warrior of Tibet and father of brave bhud Gajendra Singh Madho singh Bhandari . The dram is staged 18 (eighteen ) times in Dehradun, Mumbai, Delhi, Chandigarh, Mussorie, Tihri and many places. Jeet singh Negi wrote and directed this drama.
3-Jeetu Bagdwal: Jitu Bagdwal is famous folk lore of Garhwal. Jeetu Bagdwal was a brilliant flute player. Singh wrote the musical drama on this folk lore and more than eith times this melodious drama is staged at various places under his direction, stage administration.
4-Pativrata Rami: Parvatiya Munch Delhi staged the Hindi drama Rami Baurani conceived and created by Jeet Singh Negi in 1956 and staged many times.
5-Rami : At the occasion of Tagore centurion year , Rami a Garhwali musical drama (geet natika ) was staged first in Narendra Nagar in 1961 . Later on more than hundred of stage shows have been all across India.
6-Raju Postman: This is a Dhabadi Garhwali drams and dialogues are mixed Hindi and Garhwali. Raju Poastman Garhwal sabha Chandigarh staged this dhabadi drama first and more than ten times this drama is staged
7-Relays from Akashvani : His first Garhwali song was relayed from Akashvani in 1954. His dramas and songs are relayed more than six hundred times and it is great achievement for any regional language artist. Jeetu Bagdwal and Maletha ki Koo the radio-geet-natika are also relayed more than fifty times from Akashvani
8-Relay from Doordarshan: The Hindi version of Rami was relayed by Delhi Doordarshan
Achievements fo Jeet Singh Negi
1-He is called swar samrat. He collected many lost Garhwali folk music methodologies notes and preserved the for our future . . He also showed many Garhwali music instruments to our generation and showed that our conventional instruments are important to create Garhwali music . Jeet Singh Negi is great admirer of late kasha Anuragi the expert of dhol Sagar .
2-Jeet Singh Negi is first Garhwali folk singer whose six songs were recored by His master Voice (HMV) in 1949
Cultural Activities
1942- Started cultural programs, staging dramas, and singing programs in Pauri city
1954: Worked as assistant director in Khalifa and Chaudaheen Rat (Hindustani Movies) in Mumbai
1954: He worked as Deputy Music Director in National Gramophone Company , Mumbai
1955 : First Garhwali Song Batch Singer in Akashvani Delhi
1955 ; Directed cultural program in Raghumal Arya Girls School, Delhi
1955: Lead the cultural show before Chinese Foreign delegates in Kanpur
1955-56: was connected with cultural programs of Sarswati Maha Vidyalaya Delhi
1955: Sung Garhwal land reform related progressive songs at Garhwali progressive front conference in Delhi
1956, Lead the Garhwali Cultural Team for participating in Parvteeya Lok Geet program , Delhi, inaugurated by Indian Home minister Govind Ballabh Pant
1956: Participated and sung in Buddha Jayanti program in Lansdown
1956; All India tour for organizing Garhwali musical and cultural programs in many cities
1956: Uttarapradesh lok Sahitya Sameeti Lucknow recorded those songs which were created sung and provided music by him only
HMV Mumbai recorded his song (music by him) in 1956 and 1964
1957: Participated and lead the singers and Garhwali cultural team in the program of Uttar Pradesh Suchana Vibhag and Lok Sahitya samitee, Lucknow
1957: Participated in first Greesma kalin festival, Lainsdown
1960-He represented and led the Garhwali cultural team in participating in historical Viraat Sanskrit Sammelan Dehradun and later, Negi Ji on became secretary of this organization
1962-He organized and participated with zeal in Parvatiya Sanskritik Sammelan
Trained the child artists for participating as Garhwali performers for collecting money for Rashtriya Surakhsa Kosh through Harijan Sevak Sangh Dehradun
1964-Organized a famous Garhwali cultural show for arijan Sevak Sangh in Shrinagar Garhwal
1966- Led the Garhwali cultural team for participating in cultural program of Garhwal Bhratri Mandal Mumbai
1970- Member of organizing body of Sharad Utsav Mussurie
1972-Led the cultural team of Dehradun for Garhwal Sabha Moradabad
1976- Trained the local Mumbai performing team for the cultural show of Garhwal Bhratri Mandal Mumbai. In Garhwali society, this is historic moment that local performers Mumbaikars came out on the stage
1979- Led the cultural team at occasion of inauguration of Door Darshan TV tower in Mussorie
1979-Particpated by staging cultural program in Central Defence Account Sahtabdi celebration , Dehradun
1979-lded the Garhwali cultural team for Sharadotsava in Mussorie
1980-Staged a Garhwali cultural show in Chandigarh for Garhwal sabha
Organized piratical Kala manch Dehradun and staged four Garhwali cultural shows in that year
1982-Staged a cultural show in Chandigarh
Selected secretary of piratical kala manch
1986 Presided Garhwali Kavi Sammelan Kanpur
1987 led the Garhwali cultural team for participating in Uttar Madhya Sanskrit sammelan of Government of India in Allahabad
One of the organizer of cultural program in Rashtriya Drishtibadharth sans than Dehradun
Garhwali Movies
He wrote dialogues and song for Meri Pyari Bwai
Total creation of Cithara (Video cassette ) of Rami and maletha Ki Kool
Wrote song for Samaun (till now, un-exhibited )
Awards /Appreciations
1955-Raghumal Arya Kanya Pathshala
1956-Garhwal sabha , Dehradun
1956 District Magistrate Dehradun for program in Prantiya Raksha dal
1956-Parvitiya jan vikash delhi
1956 Sarswati mahavidyalaya Delhi
1957 Prashastrti patra by Bhagta Darshan (MP) and Naredndra Dev Sgashtri (MLA)
1958, Parvatiya Sanskritik sammelan Dehradun
1962 Lok Vidyalaya Chamoli awarded hi by“ Lokaral’award
1970, himalaya kala sngh awarded him for Maletha ki Kool
1979, Central Defense Account Department Dehradun awarded him for his contribution in promoting cultural program
1980-Akshvani Naziabad awarded as “Lok Sangeet Swar”
1984, Doon memoranda club
Vishishtha samman
1990, Gadhratna, by garhwal Bhratri Mandal Mumbai
1995 Academy award by uttar Pradesh sangeet Academy of Uttar Pradesh government
1995, Doon Ratna by Nagrik Parishad SanshthanDehradun
1999, Meeel ka Pathar award by Uttarakhand Mahotsava Dehrdun
2000, First “ mohan Upreti lok Sanskriti Puruskar” by Almora sangh
2003, Eighteen social organizations of Dehradun facilitated him by “ samuhik Nagrik Abhnandan ”
Uttaranchal government
2007, New Tihri club facilitated him on 25/5/2007
His relation with social and cultural organization
Manonranjan Club Pauri
Shail Suman Mumbai
Himalaya kala sangam Delhi
Parvtiya jan kalyan samitee Delhi
Garhwal Bhratri Mandal Mumbai
Himalaya Kala sangam Dehradun
Parvatiya Sanskrit sammelan
Sarswati mahvidyalaya Delhi
Garhwal Sabha dehradun
Garhwal ramleela parishad Dehradun
Garhwali Sahitya mandal Delhi
Uttar Pradesh Harijan Samaj Dehradun
Bharat Sevak Samaj
Curtsey by Hilliwood News , Mussorie, Vars-1, edition-4th,March, 2009, pages 8-1)
"पहाड़ प्यारा उत्तराखंड"
जनमत दिया पहाड़ ने, छिपी है कुछ बात,
वक्त भी यही कहता है, मिल जाये सौगात.
उत्तराखंड में जो सरकार है, लगती खाली हाथ,
करना कुछ वे चाहते, नहीं मिलता है साथ.
अब देखना उत्तराखंड में, होगा सत्ता का खेल,
विकास भी जरूर होगा, और चलेगी रेल.
सड़कें हैं बन रही, सर्वत्र हो रहा है विकास,
धैर्य धरो हे उत्तराखंडी, रखना मन में आस.
बिक रहा है उत्तराखंड, ये है सच्ची बात,
प्रवास हैं हम भुगत रहे, क्या है हमारे हाथ.
चर्चाओं में है छाया है, उत्तराखंड की राजधानी,
वहीँ रहेगी सच है, जहाँ होगी बिजली पानी.
राजनीति भी बाधक है, कैसे हो पहाड़ का विकास?
जल खत्म, जंगल जल रहे, संस्कृति का हो रहा है नाश.
पहाड़ पर बिक रहा है पानी, सर्वत्र छाई है शराब,
कुछ लोग चर्चा करते हैं, समाज के लिए है ख़राब.
सब कुछ है बदल रहा, नहीं बदले पक्षिओं के बोल,
डाल डाल पर चहक रहे, जिन पर हैं उनके घोल.
आज भी लग रहा है, देवताओं का दोष,
बाक्की जब बोलता है, उड़ जातें है होश.
पहाड़ घूमने गया था, ये हैं आखों देखे हाल,
उत्तराखंड राजी रहे, तेरी जय हो बद्रीविशाल.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
20.५.2009
वक्त भी यही कहता है, मिल जाये सौगात.
उत्तराखंड में जो सरकार है, लगती खाली हाथ,
करना कुछ वे चाहते, नहीं मिलता है साथ.
अब देखना उत्तराखंड में, होगा सत्ता का खेल,
विकास भी जरूर होगा, और चलेगी रेल.
सड़कें हैं बन रही, सर्वत्र हो रहा है विकास,
धैर्य धरो हे उत्तराखंडी, रखना मन में आस.
बिक रहा है उत्तराखंड, ये है सच्ची बात,
प्रवास हैं हम भुगत रहे, क्या है हमारे हाथ.
चर्चाओं में है छाया है, उत्तराखंड की राजधानी,
वहीँ रहेगी सच है, जहाँ होगी बिजली पानी.
राजनीति भी बाधक है, कैसे हो पहाड़ का विकास?
जल खत्म, जंगल जल रहे, संस्कृति का हो रहा है नाश.
पहाड़ पर बिक रहा है पानी, सर्वत्र छाई है शराब,
कुछ लोग चर्चा करते हैं, समाज के लिए है ख़राब.
सब कुछ है बदल रहा, नहीं बदले पक्षिओं के बोल,
डाल डाल पर चहक रहे, जिन पर हैं उनके घोल.
आज भी लग रहा है, देवताओं का दोष,
बाक्की जब बोलता है, उड़ जातें है होश.
पहाड़ घूमने गया था, ये हैं आखों देखे हाल,
उत्तराखंड राजी रहे, तेरी जय हो बद्रीविशाल.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
20.५.2009
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
अपनी लेखनी के द्वारा उत्तराखंड की सेवा करने वाले सभी उत्तराखंडी भाइयो को मेरा नमस्कार
आपकी poetry पड़कर अच्छा लगा सर आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ मेरा उत्तराखंड विकास के
पथ पर कहा जा रहा है सडके आज भी टूटी हुई है स्कूल कॉलेज की हालत में कंही भी सुधार नहीं हुआ है
मेने तो आपकी बेबसाईट पर ये भी पड़ा हे की जबतक राजधानी गेर्सेंन नहीं बनती तबतक उत्तरांचल
का विकास नहीं हो सकता है क्या गेर्सेंन वालों के पास कोई जादू की छड़ी है जो घुमाते ही उत्तरांचल की हालत सुधार लेंगे बहुत श्रम की बात हे आज हम राजधानी के लिए लड़ रहे है विकास तो कोई करना ही नहीं चाहता उत्तरांचल में काफी इंडस्ट्रीज लगी है लेकिन उत्तरांचल का नोजवान आज भी
बेरोजगार है चारो तरफ भर्स्टाचार ही है सभी अपनी अपनी जेबे भर रहे है हरिद्वार में सारे आदमी मुल्याम सिंह के है अपने सहीदो का बलिदान बेकार ही गया बहार के लोगो ने यहाँ कब्जा कर लिया और उत्तराखंड के लोग कल भी बहार थे और आज भी बहार ही है हम कुए के मेंडक बनकर ही रहे गये हमारे लीडरों और प्रोपर्टी डीलरों ने सारे उत्तराखंड को बेच कर सबको बेघर कर दिया है
मेने इन सबके ऊपर कुछ लाइने लिखी है आपके सामने पर्स्तुत कर रहा हूँ
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
पहली सरकार यख बी जे पी आई राजय न मेरु उत्तरांचल नो पाई
कांग्रेस ते यू रास नी आई वेंन उत्तराखंड नो धराइ
नो का ही विकास मा दुई पारटीयोंन फाइल अप्डी केली बंद
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
अभी नो की लडये छूटी नी राजधानी की ल्डये जुडीगे
कुई बुनू गेर्सेंन कुई बुनू देहरादून एमा ही विकास सब रुकीगे
राजधानी की योंकी ल्डये मा फंसीगे मेरु उत्तराखंड
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
योजना सभी कागजों मा बनी विकास सिर्फ घोस्नो मा सूनी
सड़क बनी न पूल बनी अस्पताल बनी न स्कूल बनी
अपनी इनी दुर्दशा देखी रोंन लगु मेरु उत्तराखंड
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
Nirmal Vinod
आपकी poetry पड़कर अच्छा लगा सर आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ मेरा उत्तराखंड विकास के
पथ पर कहा जा रहा है सडके आज भी टूटी हुई है स्कूल कॉलेज की हालत में कंही भी सुधार नहीं हुआ है
मेने तो आपकी बेबसाईट पर ये भी पड़ा हे की जबतक राजधानी गेर्सेंन नहीं बनती तबतक उत्तरांचल
का विकास नहीं हो सकता है क्या गेर्सेंन वालों के पास कोई जादू की छड़ी है जो घुमाते ही उत्तरांचल की हालत सुधार लेंगे बहुत श्रम की बात हे आज हम राजधानी के लिए लड़ रहे है विकास तो कोई करना ही नहीं चाहता उत्तरांचल में काफी इंडस्ट्रीज लगी है लेकिन उत्तरांचल का नोजवान आज भी
बेरोजगार है चारो तरफ भर्स्टाचार ही है सभी अपनी अपनी जेबे भर रहे है हरिद्वार में सारे आदमी मुल्याम सिंह के है अपने सहीदो का बलिदान बेकार ही गया बहार के लोगो ने यहाँ कब्जा कर लिया और उत्तराखंड के लोग कल भी बहार थे और आज भी बहार ही है हम कुए के मेंडक बनकर ही रहे गये हमारे लीडरों और प्रोपर्टी डीलरों ने सारे उत्तराखंड को बेच कर सबको बेघर कर दिया है
मेने इन सबके ऊपर कुछ लाइने लिखी है आपके सामने पर्स्तुत कर रहा हूँ
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
पहली सरकार यख बी जे पी आई राजय न मेरु उत्तरांचल नो पाई
कांग्रेस ते यू रास नी आई वेंन उत्तराखंड नो धराइ
नो का ही विकास मा दुई पारटीयोंन फाइल अप्डी केली बंद
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
अभी नो की लडये छूटी नी राजधानी की ल्डये जुडीगे
कुई बुनू गेर्सेंन कुई बुनू देहरादून एमा ही विकास सब रुकीगे
राजधानी की योंकी ल्डये मा फंसीगे मेरु उत्तराखंड
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
कना नेतो का पल्ला पड्यू मेरु उत्तराखंड
योजना सभी कागजों मा बनी विकास सिर्फ घोस्नो मा सूनी
सड़क बनी न पूल बनी अस्पताल बनी न स्कूल बनी
अपनी इनी दुर्दशा देखी रोंन लगु मेरु उत्तराखंड
अफु अफु मा सभी चोर छेनी केते देंन दंड
Nirmal Vinod
Sunday, May 17, 2009
गढ़वाली नाटक और मै
मेरी एक कविता ..
ढूध अर बोली
मिनख का वास्ता
सबसे पवित्र अर सबसे उत्तम होंद
बोई को ढूध ....
उतगे पवित्र अर उत्तम होंद वा
गेयूं की बलडी............
जैसे पैदा हुन्द एक ताकत
जैसे बण्द बोली /भाषा
वीका बोली अर वी भाषा बान तुम
अप्णो ब्रह्मांड नि कटै सकदा
अर सीना पर गोली नि खे सकदा त
धिक्कार च तुमको ! "
....................... पराशर गौड़ !
मेरे जीवन में गढ़वाली नाटक की सुरवात का सिलसिल्ला बच्चपन के दौर से ही सुरु हो गया था ! गाऊ में अक्क्सर जब लोगो खेती बाड़ी के काम काज से हलके हो जाते थे तो, रात को मनोरजन के लिए राम्लीलाये खेला करते थे ! मुझे अच्छी तरह याद है हमारे मिरचोडा ग्राम में एक बहुत बड़ा चौक है उसमे ये कार्याक्रम होते थे !
बात ६० के दशक की है तब मेरी उम्र रही होगी १० साल ! उस साल भी गोउ के लोगो ने रामलीला करने की आयोजन बनाई और उससे पहले एक नाटक खेलने का भी मन बनाया ! चूँकि पहाड़ देवभूमि है इसलिए तब धार्मिक नाटक ही वहा खेले जाते रही है सो , तब उन्होंने भी "राजा हरीशचंदर " खेलने की तयारी करने सुरू कर दी ! रात को रिहर्सल सुरु हो गई ! पात्र छांटे जाने लगे ! सब मिलगये पर रोहताश का पात्र नहीं मिला ! एक दिन मै भी रहर्शल देखने गया तो गौउ के एक चाचा ने पकड़कर मुझे आगे कर दिया ! पहले तो मै जनता को देखकर घबराया , थोडा सरमाया पर चाचा ने जेब से तब एक मीठाई " लेमचूश " निकालकर मुझे पकडाते हुए कहा ये डायलाग बोल " अरे मरी माँ को कहा ले जा रहा है " ... मैंने इधर उधर देखा , हिमत जुत्ताकर कहाडाला ... " सुनकर लोगो ने तालिया बजाई जिसे देखकर मारा मनोबल बडगया फिर क्या था मैंने रोज जाकर खूब मेहनत की ! ड्रामा हुआ ! मेरा पाठ लोगो को खूब पसंद आया ! इनाम में मुझे एक रुपया मिला ! मै सातवे आसमान पर ... बस , वो दिन था की आज का दीन नाटको एसा जुड़ा की चाह कर भी नहीं छूटा वो च्स्सका !
60 के दशक में ... ८वी पास करने के बाद मुझको उच् शिक्षा के लिए देहली आना हुया ! मुझको मात्ता सुंदरी हायर सेकंडरी स्कूल में दाखिला दिला दिया गया ! घर की प्रस्तितियो में बिभाधन आने के कारण मैंने ये निर्णय लिया की मै दिन का स्कूल छोड़ कर रात में ब्याक्तिगत पडू , और दिन में मै काम करू ! इस तरह बतौर प्राइबेट बिद्यार्थी के रूप मैंने १०वी और 12वी की ! पदाई के दौरान मुझे एक दोस्त जिनका नाम जगदीश डौन्दियाल है उनसे मुलाक़ात हुई ! वे बहुत ही अच्हा गाते थे ! मैने तब गीत लिखने शुर ही किये थे ! दोनों ने सोचा क्यों ना आकशवाणी में ट्राई करे ! उन दिनों देहली से सप्ताह में दो दिन गड्वाली गीतों का प्रशारण हुआ करता था ! उनके कहने पर मैंने गीत लिखने सुरु कर दिए ! उसने आडिशन के लिए फार्म भरा और वो पास हो गए ! सबसे पहले उसने मेरे द्वारा लिखित दो गीत गए ....
" होसिया जोगी , कैलाश बासी जागी जावा इ बाबा नीलकंठी "
" भागीरथी को छालो पानी गाल गाल ...... " !
उसके बाद तो वे हमेशा मेरे ही द्वारा लिखे गीत गाते रहे ! हम दोनों की जोड़ी जम सी गई थी ! थोडा बहुत नाम होना सुरु होगया था ! उन दिनों गड्वाली के नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत कम होया करते थे , और जो होते भी थे तो पट्टी लेबल पर ! इन कार्यक्रमों को सरकारी नौकरियो में सबे नींम श्रेणी जिन्हें तब चतुर्थ श्रेणी के नाम से पुकार जाता था किया करते थे !
इस दशक में गड्वाली हिन भावन का सिकार..........
इस बीच देहली में एक बड़ी तबदीली दिखने में आई सरकारी नौकरियों में पाहाडी तपके से बाबुओ की तायदाद बड़ी ! एक और खुसी भी हुई तो इसका बुरा नतीजा हमरे समाज पर पडा क्यों की जो बाबु बना वो पहाड़ के गड्वालीयो से कट गया ! वो इस बाबू गिरी में अपनी माँ बोली रहन सहन तक से अपना नाता तोड़ने में लग गाया ! वो हिन्भावान का शिकार होता चला गया ! अधिकतर लोगो ने अपनी जात छुपाने के लिए शर्मा लिखने लगे थे ताकि कोई उन्हें जात के द्वारा न जान पाए की ये वो जात है जो गडवाल में पाई जाती है ! अपने साथ वो जो करते थे सो ठीक पर उन्होंने अपने बचों को भी गडवाल व गड्वाली बोली से कोसो दूर रखा नतीजा ये हुआ की गड्वाली बोली का विकास एक दम रुक सा गया ! ना कोई गीत -,संगीत ना सांस्कृतिक कार्यकर्म ना कविता ना नाटक ! उस दौरान जैसा मैंने कहा की चपरासी लोगो ने गड्वाली बोली भाषा को जिंदा रखा ! बाबु से थोडा उप्पर उठे चद एक लोगो में फिर से अपनी बोली के प्रति कुछ रुछान जो किसी कोने में अभी जिंदा था वो जग रहा था !
गड्वाली नाटक और उसकी दशा ....
मै गड्वाली गीत लिखता रहा और वो आकाश्बानी से प्रसारित होते रहे ! सेवा नगर ( सेवा इसलिए रखा या कहा जाता रहा क्यूँ की वहा पर सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले चपरासी लोगो जो दफ्तारो में जो सेवा करते थे उनके इस सेवा भाऊ को देख कर उनकी कोलानी का नाम रखा गया ) में यदा कदा ये लोगो गीत/निर्त्य का प्रोग्राम करते थे उसमे आकाशवाणी का कलाकार का आना अपने आप में एक बहुत बड़ी हस्ती के आने के न आने बराबर था बल्कि वे अपने को फक्र भी मह्शूश करते थे की हमारे प्रोग्राम में आकाशवाणी के आर्टिस्ट आये ! मै जगदीसा को आमंत्रित किया जाता रहा ! हमे समान मिलता , हमें भी गर्व होता !
देहली में गड्वाली नाटक की सुरुवात
देहली जैसे महानगर में बिभिन्न प्रान्तों से लोगो आकर बसे और वे अपने साथ लाए अपने साथ अपने प्रदेश या प्रान्त की हर चीज़ जैसे बोली/भासा पहनाऊ रीती रिवाज़ खान पान आदि ! गडवाल से भी लोगो यहाँ आकर बसे ! कभी कभार ये लोग सांस्कृतिक का आयोजन भी करते थे ! उस दौरान मुझको एक नाटक देखने को मिला जिसे स्वर्गीय ललित मोहन जी ने लिखा था वो एकांकी नाटक " घर जवाई " था जिसको किया था " सहित्य कला समाज ' सरोजिनी नगर वालो ने ! बाद में ये संस्था ने नाम बदल कर "जागर " रखकर कई नाटक प्रस्तुत करे ! नाटक अछा था लेकिन , नाटक की में कई बाते थी जिसमे गड्वाली के प्रति लोगो की उदासीनता देखी जा सकती थी ! मसलन लोगो का (दर्सको का ) अभाऊ , स्त्री पात्रो का न होना , किसी नाट्य सभा गार में न खेला जाना या होना , किसी एक बिशेस लोगो का होना या के लिए खेला जाना , किसकी ख़ास गुट का होना आदि आदि ! जैसा मैं ने पूरब में भी कहा की लोगो हिन् भावनाओ से ग्रस्त होने के कारण खुलकर बाहर नहीं आ रहे थे फिर भी यह संस्था कभी कभार नाटक करती रहती थी ! कभी समय तक ये सिलसिला चलता रहा ! एकांकी ही का दौर बना रहा ! फुललैथ नाटक ना तो लिखे जारहे थाईऔर नाही खेले जा रहे थे कारण साफ़ था !
१. जनता का रुझान नहीं के बराबर था और नहीं माहोल बन पा रहा था !
२. स्त्री पात्रो का अभाऊ जो नाटक को प्रिय बनाने में अहम् भूमिका निभाती है का ना होना !
३ गद्वालियो का अपनी बोली से जान भुझकर मुख मोड़ना !
जब मै देहली आया गड्वाली बोली के प्रति लोगो का ये रवया देखा तो मन को ठेस पहुंची ! नाटको के प्रति रुझान तो था ही मौके के तलाश में था और देखा कोइ संस्था खेल रही है तो उसकी रहर्शल में जाता ! बैठा रह्त्ता ! रात १२ बजे दो दो बस्सो को बदल कर घर आता ! मुझे अछी तरह याद है जब मैंने किसी ऐक्टर से कहा कि मुझको भी कोई रोल दिलवा दो तो उसका कहना था " अभी तुब हमारे लिए बीडी पान लाते रहो " फिर देखेगे ! खैर बात नहीं बनी ! इस बीच एक और नाटक देखा जो जीत सिंह नेगी जी ने लिखा था " भारी भूल" जिसमे विमला /कांता थपलियाल नामक दो भीने स्टेज पर आई ! यहाँ पर पहलीबार मोहन उप्रती जी से मुलाक़ात होई ! बाद में रानाजी , भूतपूरब आयुक्त टम्टा जी , मोहन जी और मैंने ने मिलकर एक संस्था बनाई जिस्सके तत्वाधान में " कमानी हाल में "राजुला मालू शाही " खेला गया ! जिसकी मुख्या भुमका नभाही थी विश्व मोहन बडोला और भारती शर्मा ने !
कोई घास ही नहीं गेर रहा था जब जब चाहा एक मायेने में दुत्कारा ही गया ! एक रोज सोचा एसे तो मौका मिलने से रहा फिर क्यों ना अपना एक ग्रुप बानाकर सुरु करे ? मैंने अपने एक मित्र दिनेश पहाडी जो नाटक में शोक रखते थे मीटिग कि और अपना विचार बताया वो तैयार होगये !उन्होंने अपने एक मित्र जो गड्वाली नहीं थे लेकिन नाटको के शोकीन थे नाम था क्रिशंचंद चंपुरिया हम तीनो ने मिलकर एक संस्था बनाई नाम दिया " पुष्पांजली रंगशाला "
पराशर गौर
Cont.....
ढूध अर बोली
मिनख का वास्ता
सबसे पवित्र अर सबसे उत्तम होंद
बोई को ढूध ....
उतगे पवित्र अर उत्तम होंद वा
गेयूं की बलडी............
जैसे पैदा हुन्द एक ताकत
जैसे बण्द बोली /भाषा
वीका बोली अर वी भाषा बान तुम
अप्णो ब्रह्मांड नि कटै सकदा
अर सीना पर गोली नि खे सकदा त
धिक्कार च तुमको ! "
....................... पराशर गौड़ !
मेरे जीवन में गढ़वाली नाटक की सुरवात का सिलसिल्ला बच्चपन के दौर से ही सुरु हो गया था ! गाऊ में अक्क्सर जब लोगो खेती बाड़ी के काम काज से हलके हो जाते थे तो, रात को मनोरजन के लिए राम्लीलाये खेला करते थे ! मुझे अच्छी तरह याद है हमारे मिरचोडा ग्राम में एक बहुत बड़ा चौक है उसमे ये कार्याक्रम होते थे !
बात ६० के दशक की है तब मेरी उम्र रही होगी १० साल ! उस साल भी गोउ के लोगो ने रामलीला करने की आयोजन बनाई और उससे पहले एक नाटक खेलने का भी मन बनाया ! चूँकि पहाड़ देवभूमि है इसलिए तब धार्मिक नाटक ही वहा खेले जाते रही है सो , तब उन्होंने भी "राजा हरीशचंदर " खेलने की तयारी करने सुरू कर दी ! रात को रिहर्सल सुरु हो गई ! पात्र छांटे जाने लगे ! सब मिलगये पर रोहताश का पात्र नहीं मिला ! एक दिन मै भी रहर्शल देखने गया तो गौउ के एक चाचा ने पकड़कर मुझे आगे कर दिया ! पहले तो मै जनता को देखकर घबराया , थोडा सरमाया पर चाचा ने जेब से तब एक मीठाई " लेमचूश " निकालकर मुझे पकडाते हुए कहा ये डायलाग बोल " अरे मरी माँ को कहा ले जा रहा है " ... मैंने इधर उधर देखा , हिमत जुत्ताकर कहाडाला ... " सुनकर लोगो ने तालिया बजाई जिसे देखकर मारा मनोबल बडगया फिर क्या था मैंने रोज जाकर खूब मेहनत की ! ड्रामा हुआ ! मेरा पाठ लोगो को खूब पसंद आया ! इनाम में मुझे एक रुपया मिला ! मै सातवे आसमान पर ... बस , वो दिन था की आज का दीन नाटको एसा जुड़ा की चाह कर भी नहीं छूटा वो च्स्सका !
60 के दशक में ... ८वी पास करने के बाद मुझको उच् शिक्षा के लिए देहली आना हुया ! मुझको मात्ता सुंदरी हायर सेकंडरी स्कूल में दाखिला दिला दिया गया ! घर की प्रस्तितियो में बिभाधन आने के कारण मैंने ये निर्णय लिया की मै दिन का स्कूल छोड़ कर रात में ब्याक्तिगत पडू , और दिन में मै काम करू ! इस तरह बतौर प्राइबेट बिद्यार्थी के रूप मैंने १०वी और 12वी की ! पदाई के दौरान मुझे एक दोस्त जिनका नाम जगदीश डौन्दियाल है उनसे मुलाक़ात हुई ! वे बहुत ही अच्हा गाते थे ! मैने तब गीत लिखने शुर ही किये थे ! दोनों ने सोचा क्यों ना आकशवाणी में ट्राई करे ! उन दिनों देहली से सप्ताह में दो दिन गड्वाली गीतों का प्रशारण हुआ करता था ! उनके कहने पर मैंने गीत लिखने सुरु कर दिए ! उसने आडिशन के लिए फार्म भरा और वो पास हो गए ! सबसे पहले उसने मेरे द्वारा लिखित दो गीत गए ....
" होसिया जोगी , कैलाश बासी जागी जावा इ बाबा नीलकंठी "
" भागीरथी को छालो पानी गाल गाल ...... " !
उसके बाद तो वे हमेशा मेरे ही द्वारा लिखे गीत गाते रहे ! हम दोनों की जोड़ी जम सी गई थी ! थोडा बहुत नाम होना सुरु होगया था ! उन दिनों गड्वाली के नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत कम होया करते थे , और जो होते भी थे तो पट्टी लेबल पर ! इन कार्यक्रमों को सरकारी नौकरियो में सबे नींम श्रेणी जिन्हें तब चतुर्थ श्रेणी के नाम से पुकार जाता था किया करते थे !
इस दशक में गड्वाली हिन भावन का सिकार..........
इस बीच देहली में एक बड़ी तबदीली दिखने में आई सरकारी नौकरियों में पाहाडी तपके से बाबुओ की तायदाद बड़ी ! एक और खुसी भी हुई तो इसका बुरा नतीजा हमरे समाज पर पडा क्यों की जो बाबु बना वो पहाड़ के गड्वालीयो से कट गया ! वो इस बाबू गिरी में अपनी माँ बोली रहन सहन तक से अपना नाता तोड़ने में लग गाया ! वो हिन्भावान का शिकार होता चला गया ! अधिकतर लोगो ने अपनी जात छुपाने के लिए शर्मा लिखने लगे थे ताकि कोई उन्हें जात के द्वारा न जान पाए की ये वो जात है जो गडवाल में पाई जाती है ! अपने साथ वो जो करते थे सो ठीक पर उन्होंने अपने बचों को भी गडवाल व गड्वाली बोली से कोसो दूर रखा नतीजा ये हुआ की गड्वाली बोली का विकास एक दम रुक सा गया ! ना कोई गीत -,संगीत ना सांस्कृतिक कार्यकर्म ना कविता ना नाटक ! उस दौरान जैसा मैंने कहा की चपरासी लोगो ने गड्वाली बोली भाषा को जिंदा रखा ! बाबु से थोडा उप्पर उठे चद एक लोगो में फिर से अपनी बोली के प्रति कुछ रुछान जो किसी कोने में अभी जिंदा था वो जग रहा था !
गड्वाली नाटक और उसकी दशा ....
मै गड्वाली गीत लिखता रहा और वो आकाश्बानी से प्रसारित होते रहे ! सेवा नगर ( सेवा इसलिए रखा या कहा जाता रहा क्यूँ की वहा पर सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले चपरासी लोगो जो दफ्तारो में जो सेवा करते थे उनके इस सेवा भाऊ को देख कर उनकी कोलानी का नाम रखा गया ) में यदा कदा ये लोगो गीत/निर्त्य का प्रोग्राम करते थे उसमे आकाशवाणी का कलाकार का आना अपने आप में एक बहुत बड़ी हस्ती के आने के न आने बराबर था बल्कि वे अपने को फक्र भी मह्शूश करते थे की हमारे प्रोग्राम में आकाशवाणी के आर्टिस्ट आये ! मै जगदीसा को आमंत्रित किया जाता रहा ! हमे समान मिलता , हमें भी गर्व होता !
देहली में गड्वाली नाटक की सुरुवात
देहली जैसे महानगर में बिभिन्न प्रान्तों से लोगो आकर बसे और वे अपने साथ लाए अपने साथ अपने प्रदेश या प्रान्त की हर चीज़ जैसे बोली/भासा पहनाऊ रीती रिवाज़ खान पान आदि ! गडवाल से भी लोगो यहाँ आकर बसे ! कभी कभार ये लोग सांस्कृतिक का आयोजन भी करते थे ! उस दौरान मुझको एक नाटक देखने को मिला जिसे स्वर्गीय ललित मोहन जी ने लिखा था वो एकांकी नाटक " घर जवाई " था जिसको किया था " सहित्य कला समाज ' सरोजिनी नगर वालो ने ! बाद में ये संस्था ने नाम बदल कर "जागर " रखकर कई नाटक प्रस्तुत करे ! नाटक अछा था लेकिन , नाटक की में कई बाते थी जिसमे गड्वाली के प्रति लोगो की उदासीनता देखी जा सकती थी ! मसलन लोगो का (दर्सको का ) अभाऊ , स्त्री पात्रो का न होना , किसी नाट्य सभा गार में न खेला जाना या होना , किसी एक बिशेस लोगो का होना या के लिए खेला जाना , किसकी ख़ास गुट का होना आदि आदि ! जैसा मैं ने पूरब में भी कहा की लोगो हिन् भावनाओ से ग्रस्त होने के कारण खुलकर बाहर नहीं आ रहे थे फिर भी यह संस्था कभी कभार नाटक करती रहती थी ! कभी समय तक ये सिलसिला चलता रहा ! एकांकी ही का दौर बना रहा ! फुललैथ नाटक ना तो लिखे जारहे थाईऔर नाही खेले जा रहे थे कारण साफ़ था !
१. जनता का रुझान नहीं के बराबर था और नहीं माहोल बन पा रहा था !
२. स्त्री पात्रो का अभाऊ जो नाटक को प्रिय बनाने में अहम् भूमिका निभाती है का ना होना !
३ गद्वालियो का अपनी बोली से जान भुझकर मुख मोड़ना !
जब मै देहली आया गड्वाली बोली के प्रति लोगो का ये रवया देखा तो मन को ठेस पहुंची ! नाटको के प्रति रुझान तो था ही मौके के तलाश में था और देखा कोइ संस्था खेल रही है तो उसकी रहर्शल में जाता ! बैठा रह्त्ता ! रात १२ बजे दो दो बस्सो को बदल कर घर आता ! मुझे अछी तरह याद है जब मैंने किसी ऐक्टर से कहा कि मुझको भी कोई रोल दिलवा दो तो उसका कहना था " अभी तुब हमारे लिए बीडी पान लाते रहो " फिर देखेगे ! खैर बात नहीं बनी ! इस बीच एक और नाटक देखा जो जीत सिंह नेगी जी ने लिखा था " भारी भूल" जिसमे विमला /कांता थपलियाल नामक दो भीने स्टेज पर आई ! यहाँ पर पहलीबार मोहन उप्रती जी से मुलाक़ात होई ! बाद में रानाजी , भूतपूरब आयुक्त टम्टा जी , मोहन जी और मैंने ने मिलकर एक संस्था बनाई जिस्सके तत्वाधान में " कमानी हाल में "राजुला मालू शाही " खेला गया ! जिसकी मुख्या भुमका नभाही थी विश्व मोहन बडोला और भारती शर्मा ने !
कोई घास ही नहीं गेर रहा था जब जब चाहा एक मायेने में दुत्कारा ही गया ! एक रोज सोचा एसे तो मौका मिलने से रहा फिर क्यों ना अपना एक ग्रुप बानाकर सुरु करे ? मैंने अपने एक मित्र दिनेश पहाडी जो नाटक में शोक रखते थे मीटिग कि और अपना विचार बताया वो तैयार होगये !उन्होंने अपने एक मित्र जो गड्वाली नहीं थे लेकिन नाटको के शोकीन थे नाम था क्रिशंचंद चंपुरिया हम तीनो ने मिलकर एक संस्था बनाई नाम दिया " पुष्पांजली रंगशाला "
पराशर गौर
Cont.....
समय
पराशर जी कनेडा में रहते हैं, और हिन्दी साहित्य से विशेष ममता रखते हैं, अपनी जमीन से दूर रहते हुए जिस तरह की रिक्तता का अनुभव होता है, वही उनकी कविता में स्वर बनता है जो मानवता के काफी करीब होता है।
समय
जब भी कोई चीज़
इजाद होती है , तो
उसका अंत भी ,
साथ जन्म ले लेता है !
हमारा खेल भी समाप्त होने वाला है
क्योकि .......
हम सब बारूद के ढेर पर बैठे है !
इस सभ्यता के युग में सब
हथियारों के पीछे दौडे जा रहे है
ये दौड़ .......
कब, कहाँ समाप्त होगी
ये तो आने वाला कल ही बताएगा !
वो कल...
अवश्य आयेगा
जब,
सब कुछ समाप्त हो जायेगा
पीछे छूट जायेगा
एक इतिहास !
जिसमे दफ़न होगी
मानव द्वारा निर्मित अन्वेषणों के
संहार की सिलसिलेवार दास्ताँ !
मुझे ...,
अपने मरने का कोइ गम नहीं
गम है तो इस बात का
कि, ईश्वर द्वारा निर्मित मानव
इतना बीभत्स, इतना क्रूर भी हो सकता है
जो, मानव, मानव के
खून का प्यासा हो !
शायद
फिर से एक नये माहाभारत के
होने कि आशंका है
इस महाभारत में ना तो
कृष्ण, ना हज़रात
और ना ही ईसा मसीहा
होगा तो केवल एक "एटम"
जो मानव को
हमेशा हमेशा के लिए मिटा देगा !
पता नहीं
तब, कोई शांति का मशीहा
पैदा भी होगा या नहीं
हां, इतना जरूर है कि तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी !
मानव मानव के लिए तरसेगा
सनद रह जायेगी .केवल
बारूद धुँआ!
बस धुँआ!
पराशर गौर
समय
जब भी कोई चीज़
इजाद होती है , तो
उसका अंत भी ,
साथ जन्म ले लेता है !
हमारा खेल भी समाप्त होने वाला है
क्योकि .......
हम सब बारूद के ढेर पर बैठे है !
इस सभ्यता के युग में सब
हथियारों के पीछे दौडे जा रहे है
ये दौड़ .......
कब, कहाँ समाप्त होगी
ये तो आने वाला कल ही बताएगा !
वो कल...
अवश्य आयेगा
जब,
सब कुछ समाप्त हो जायेगा
पीछे छूट जायेगा
एक इतिहास !
जिसमे दफ़न होगी
मानव द्वारा निर्मित अन्वेषणों के
संहार की सिलसिलेवार दास्ताँ !
मुझे ...,
अपने मरने का कोइ गम नहीं
गम है तो इस बात का
कि, ईश्वर द्वारा निर्मित मानव
इतना बीभत्स, इतना क्रूर भी हो सकता है
जो, मानव, मानव के
खून का प्यासा हो !
शायद
फिर से एक नये माहाभारत के
होने कि आशंका है
इस महाभारत में ना तो
कृष्ण, ना हज़रात
और ना ही ईसा मसीहा
होगा तो केवल एक "एटम"
जो मानव को
हमेशा हमेशा के लिए मिटा देगा !
पता नहीं
तब, कोई शांति का मशीहा
पैदा भी होगा या नहीं
हां, इतना जरूर है कि तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी !
मानव मानव के लिए तरसेगा
सनद रह जायेगी .केवल
बारूद धुँआ!
बस धुँआ!
पराशर गौर
Garhwali Language poet-10
Veena Pani Joshi: the poet of affection and environment love
Bhishma Kukreti
Birth: 10th February, 1937, Dehradun, Uttarakhand
Mother : Smt Visheshwari Devi Bahuguna
Father: Shri Chakradhar Bahuguna Shashtri ,the famous Garhwali language creative
Education: B.A . from Agra University, B.Ed. From Garhwal University
Garhwali and Hindi Articles and poetry published in :
Nav Bharat Times
Alaknanda
Uttarayani
Vashudhara
Bugyal
Prayash
Nutan Savera
Dandi kanthee
Harit Vashundhara
Yugvani
Doon Darpan
Himalaya darpan
Samay Sakhsha
Dhad
Chithi Patri
Doodhboli
Ghughati
Buransh
Rant Raibar
Uttrakhand Khabar Saar
Shailvani
Uttara
Research essays:
Uttrakhand ‘s women in Dhad Grantham, 1994
Uttrakhand Mahitsava by garhwal sabha dehradun, 2000
Many articles on Chandrakunwar Bartwal
Threats in Civil society
Joshi commands over English Garhwali, Hindi, Punjabi, Sanskrit , Kumauni, Avadhi languages
Awards:
Uttrakhand Gaurav Samman by Chatna
Kala Shri by Samskar Bharati
Sahitya Shiromani
Hindi sahitya Samiti Dehradun’s annual award
Akhil Bhartiya Garhwal Sabha
Nagar Suraxa samman, Dehradun
Books:
Pithain Pairalo Buransh a Garhwali poetry collection of 100 poems
Stories in Garhwali Dant Kathayen
@ Copyright: Bhishma Kukreti,Mumbai 2009,
Bhishma Kukreti
Birth: 10th February, 1937, Dehradun, Uttarakhand
Mother : Smt Visheshwari Devi Bahuguna
Father: Shri Chakradhar Bahuguna Shashtri ,the famous Garhwali language creative
Education: B.A . from Agra University, B.Ed. From Garhwal University
Garhwali and Hindi Articles and poetry published in :
Nav Bharat Times
Alaknanda
Uttarayani
Vashudhara
Bugyal
Prayash
Nutan Savera
Dandi kanthee
Harit Vashundhara
Yugvani
Doon Darpan
Himalaya darpan
Samay Sakhsha
Dhad
Chithi Patri
Doodhboli
Ghughati
Buransh
Rant Raibar
Uttrakhand Khabar Saar
Shailvani
Uttara
Research essays:
Uttrakhand ‘s women in Dhad Grantham, 1994
Uttrakhand Mahitsava by garhwal sabha dehradun, 2000
Many articles on Chandrakunwar Bartwal
Threats in Civil society
Joshi commands over English Garhwali, Hindi, Punjabi, Sanskrit , Kumauni, Avadhi languages
Awards:
Uttrakhand Gaurav Samman by Chatna
Kala Shri by Samskar Bharati
Sahitya Shiromani
Hindi sahitya Samiti Dehradun’s annual award
Akhil Bhartiya Garhwal Sabha
Nagar Suraxa samman, Dehradun
Books:
Pithain Pairalo Buransh a Garhwali poetry collection of 100 poems
Stories in Garhwali Dant Kathayen
@ Copyright: Bhishma Kukreti,Mumbai 2009,
Garhwali Prose is not a News at all
Bhishma Kukreti is top most satirist of Garhwali Prose is not a News at all
Bhishma Kukreti
Shri Kathat Ji,
Thank you very much for publishing my letter in Uttarakhand Khabar Sar , Pauri (1-4-09)
However, the title of my letter was, “Narendra Singh katahit Ji-it is not fare to criticise local papers.” However, you or editor changed the title as “Ta Gadhwali Vyangya lekhan man Bhishma Kukreti ji se bado likhwar kwee nee cha”. It has not only changed the point of discussion but you want to discuss that who is great satire writer of Garhwali prose. Sorry, there is no point of discussion who is great or sabse bado likhwar of Garhwali. Yes! Bhishma Kukreti is the great and no body is nearer to him even Narendra kathait is no where nearer to Bhishma Kukreti. No body could bring variety in subject, experimentations, style, form etc as I have done in Garhwali satire. So, don’t talk on the undisputable subject. You name any subject and you will find the article of Bhishma Kukreti.and if any body say I am arrogant ghamandi, in praising myself I don’t mind because the truth is truth.
Now let me come to the main point I did noot criticize you for your prose or your capability as satirist. I have already done that in your first book of Garhwali prose satire.
I would like to inform about those old local papers who provided space for Garhwali prose and satire too
Pursuant (1907)
Gadhwali Saptahik (1906)
Gadhwal Samachar (1902)
Khsatriya Beer
Gadhdesh
Himani
Vishal Kirti
(All before1915)
After 1946, the following news paper or magazines used to publish Gadhwali satire:
Fyaunli from Dehradun
Ranko from Dehradun
Gadhwal from Dehradun
Raibar from Dehradun
Maiti from Gauchar/Rudra Prayag
Shailodaya from Delhi
Dev Bhumi Nand prayag
Ghati ke garjate Swar
Mandan Delhi
Parvteeya jan Pratika
Himwant
Lalkar from Kotdwar
Rant Raibar Dehardun
My request to you is to reply for your comments about local papers not publishing the satire Garhwali and not to prove whether Bhishma Kukreti is the greatest or not, Bhsishma Kukreti is the great .
copyright@ Bhsishma Kukreti
Bhishma Kukreti
Shri Kathat Ji,
Thank you very much for publishing my letter in Uttarakhand Khabar Sar , Pauri (1-4-09)
However, the title of my letter was, “Narendra Singh katahit Ji-it is not fare to criticise local papers.” However, you or editor changed the title as “Ta Gadhwali Vyangya lekhan man Bhishma Kukreti ji se bado likhwar kwee nee cha”. It has not only changed the point of discussion but you want to discuss that who is great satire writer of Garhwali prose. Sorry, there is no point of discussion who is great or sabse bado likhwar of Garhwali. Yes! Bhishma Kukreti is the great and no body is nearer to him even Narendra kathait is no where nearer to Bhishma Kukreti. No body could bring variety in subject, experimentations, style, form etc as I have done in Garhwali satire. So, don’t talk on the undisputable subject. You name any subject and you will find the article of Bhishma Kukreti.and if any body say I am arrogant ghamandi, in praising myself I don’t mind because the truth is truth.
Now let me come to the main point I did noot criticize you for your prose or your capability as satirist. I have already done that in your first book of Garhwali prose satire.
I would like to inform about those old local papers who provided space for Garhwali prose and satire too
Pursuant (1907)
Gadhwali Saptahik (1906)
Gadhwal Samachar (1902)
Khsatriya Beer
Gadhdesh
Himani
Vishal Kirti
(All before1915)
After 1946, the following news paper or magazines used to publish Gadhwali satire:
Fyaunli from Dehradun
Ranko from Dehradun
Gadhwal from Dehradun
Raibar from Dehradun
Maiti from Gauchar/Rudra Prayag
Shailodaya from Delhi
Dev Bhumi Nand prayag
Ghati ke garjate Swar
Mandan Delhi
Parvteeya jan Pratika
Himwant
Lalkar from Kotdwar
Rant Raibar Dehardun
My request to you is to reply for your comments about local papers not publishing the satire Garhwali and not to prove whether Bhishma Kukreti is the greatest or not, Bhsishma Kukreti is the great .
copyright@ Bhsishma Kukreti
Wednesday, May 13, 2009
Subscribe to:
Posts (Atom)