गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी,
पुरातन बोली भाषा हैं हमारी,
मत करो तिरस्कार इनका,
विरासत हैं हमारी.
अस्तित्व मैं है,
गढ़वाली भाषा दसवीं सदी से,
पंवार वंशीय गढ़ नरेशों ने,
अपनी राज-भाषा के रूप में,
गढ़वाली बोली भाषा को अपनाया,
मिलता है जिसका प्रमाण,
तामपत्रों एवं राजपत्रों में.
वीरगाथाओं में,
मांगळ और गीतों में,
मिलती हैं,
गढ़वाली भाषा की,
अतीत की झलक,
अलंकारिक रूप में.
जागो! उत्तराखंडी बन्धु,
मत करो अपनी भाषा का,
आज आप बहिष्कार,
बोलो, लिखो और अपनाओ,
फिर देखना,
होगा अपनी प्रिय भाषा का,
फलते फूलते हए श्रृंगार.
(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली
9.10.2009, दूरभास:9868795187
E-Mail: j_jayara@yahoo.com
जागो! उत्तराखंडी बन्धु,
ReplyDeleteमत करो अपनी भाषा का,
आज आप बहिष्कार,
बोलो, लिखो और अपनाओ,
फिर देखना,
होगा अपनी प्रिय भाषा का,
फलते फूलते हए श्रृंगार.
Bahut achha kaha aapne Jigyashu ji. Hamen apne matra bhasha kabhi nahi bhulani chahiye. Kyunki yahi bhasha (boli) hai jo hamen apno ke bahut kareeb hone ka ehasas karata hai. dukh-dard issi bhasha mein achhi tarah ham samjh sakte hai.
Shubhkamna.
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ReplyDeleteजागो! उत्तराखंडी बन्धु,
Deleteमत करो अपनी भाषा का,
आज आप बहिष्कार,
बोलो, लिखो और अपनाओ,
फिर देखना,
होगा अपनी प्रिय भाषा का,
फलते फूलते हए श्रृंगार
bhai sahab aap jan logo ki soch rahegi to ek din hamara uttrakhand garhwal ku jarur vikas holu
jitendra singh negi
vill-machkandi
dis-rudraparyag
uttranchal
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments