चुनाऊ चाहिए , राष्ट्रपती का हो , या, किसी सरकारी राशन की दूकान के चौकीदार का ! प्रजातंत्र देशो में चुनाऊ की पद्धती एक सी होती है ! आम आदमी याने मतदाता अपना वोट किसी भी उमीद्वार को देता है और इस परिक्रिया में जिस मतदाता को सबसे ज्यादा बोट पड़े या मिले वो जीता , चाहिए ये बोट कैसे भी मिले हो ? चोरी से, हेरा फेरी से , डरा के, धमका के, लुभाके , पिस्टल की नोक से या राजनैतिक हिसाब से बूथ कोचारिंग कर के , कुलमिलाकर अधिक बोट चाहिए ....., खलास ...... कहते है ना , जो जीता वही सिकंदर !
गजब तो तब हुआ की जबकि मै वाहा गया भी नही , और नाही मैंने कोई प्रचार किया ! ना ही मुझे ज्ञांत
था की मेरे सामने कौन खडा है और मै किसके ? इन सब बातो के बाजूद मै जीत गया ! मेरे लिए ये संसार का ११व आजूब से कम नहीं था ! लोग कहते है ताज सबसे सुंदर है ! अरे भाई, होगा !, लेकिन, मेरा ये चनाऊ, मेरे लिए सबसे सुंदर है ,था , और होगा , क्यूंकि मै चनाऊ जीत गया था !
इस चुनाऊ में मेरी जीत के पीछे क्या पता , उस पार्टी या संस्था की मजबूरी रही हो ? या एसा भी हो सकता हो की उस संस्था या पार्टी के पास उमीद्वारो की कमी रही हो ? एसा भी हो सकता है ! ये मेरी सोच है ! सोच है तो सोच है कि, मेरे सामने वाली की छबी जनता में जरूरत से ज्यादा खराब हो, या हो रही हो ? कौन जाने ? इसी बात को ध्यान में रखते हुए शायद बोटरो ने फ्लोर क्रासिग कर मुझे अपना बोट दे दिया हो कि चलो , उससे तो अछा है कि किसी नए/ अनजान को चुने ! जो कुछ भी हुआ होगा एक बात तो तय है कि मै जीत गया !
खुशी तो तब हुई जब किसी ने मुझे कहा कि मै जीत गया ! जीत का अहसास आप क्या जाने ! जानना है तो हारने वाले से पूछो ! इसकी अनुभूती तो जीतने वाला ही समझ सकता है ! उसको वो सब्दो में बया नही कर सकता कि कैसे महसूस कर रहा है ! इसका आनद तो ठीक किसी खुजली वाले इन्स्सन से पूछो कि भया , खुजली को, खुल्जाने के बाद कैसे महसूस कर रहे हो ? और उसका आनद कैसा है ? अरे बंधू .. जब कोई उसकी पीठ खुजला राह था तो तब उसके चेहरे कि हाव भाव देखते कि वो कैसे महसूस कर रहा है ! चेहरा बया कर सता है जुबा नहीं !
दरअसल , ये सब अनुभव कि बाते है ! बिना चुनाऊ लडे, हार- जीत का अनुभव नही होता ! एक और बात . जब से मैंने सूना कि मै जीत् गया हूँ , तो, मेरी बुधी काम नही कर रही है कि मै सता मै बैठू या बिरोध में ? इस जीत के बाद समस्यओ ने मुझे घेरना शुरू कर दिया है ! समस्या कुर्सी की हो गई है ! अगर कुर्शी मिले तो सता के साथ , नाही मिले तो , बिपक्ष के साथ !
अब क्या बताऊ , इस पार्टी /संस्था में , इस कुर्शी के लिए मैंने , अपनी आँखों से सामने मारा मारी देखी है ! ये भी देखा है जो रण-बाँकुरे पहले भी जीते थे , जो तब सता के साथ थे, वे , इनकी, इस कुर्शी के मोह और लड़ाई के कारण, दुखी होकर बिपक्ष में बैठ गए थे ! मैंने ये भी देखा है जो कुर्शी पर जा बैठा था वो उसे छोड़ने को राजी नहीं और जो सता से नाराज हो गए थे वो समझोता करने को राजी नहीं ! इसमें इन दोनों का टॉम कुछ नही बिगडा पर इनकी इस लड़ाई में धारासाही हुई थी बेचारी ये संस्था ! इसकी छाती में ये चुनाऊ लडै, जीते , और अब उसीकी छाती पर ये मूँग दल रहे है !
मै जीता हुआ उमीद्वार हूँ ! आप मुझ से क्या उमीद रखते है कि मै , सब को साथ लेकर चालू ! आप सही सोचते है और मेरा ईराद भी यही है लेकिन बाद में , पता चल कि मै , चल तो रहा हूँ वो भी अकेले - अकेले !
बिचारो की बात आई तो मेरी समझ में ये नही आता कि हमारे बिचार आपस में क्यों नही मिलते ! जब तक हम जीते नहीं थे सब ठीक ठाक था ये चुनाऊ के बाद ही बिचारो में ये क्या तब्दीली आ गई ! क्या कुर्शी कि बजह ! ..साब ये कुर्सी है ही ऐसी !
मेरी पत्नी ने फोन उठया और जैसे ही सूना कि मै चुनाऊ जीत गया हूँ वो मुझ से उन्लाझ पडी ! तुम्हे किसने कहा था कि चुनाऊ लाडो ? इस पचडो में पडो ? पहले ही क्या कम चल रहा तुम्हारी इन संस्थाओं में ? इस जीत से पहले मै और मेरी पत्नी बड़े माजी में हँसी खुशी बतिया रहे थे लेकिन वो इस चुनाऊ के मुधे को लेकर बहत गंभीर है ! इतनी गंभीर कि, चुनाऊ मैंने नाही इसने जीता हो ? हम धडो में बात गए है ! मै इधर और वो उधर ! अभी तो सुरवात है वो भी घर से ! आगे क्या होता होगा, मालुम नही ! अब मै सोच रहा हूँ कि मैं ये क्या कर दिया है ! इस जीत ने घर कि शांति में अपनी सेंध लगा दी है ! समझ में नही आ राहा है कि मेरी ये जीत , जाने कितनो को हंशायेगी और कितनो को रुलायेगी ?
पराशर गौर
अक्तूबर ३० -०९ रात १०.२० पर
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