Wednesday, April 29, 2009
एक दोस्त तो मिले!
तेरे शहर की भीड़ मैं,
गुम हो के रह गई दोस्ती,
आओ इस खुदगर्ज शहर में फिरसे नए दोस्त बनायें.
मौत का बहम इस शहर में,
मौसम और हवा में घुटन सी,
अब कहाँ जाके साँस ली जाये.
पेड़ सब नंगे फकीरों की तरह सहमे से,
बस तपिश है खुदगर्जी की,
कैसे धुप सही जाये.
आस्तीनों में चलो फिरसे सांप ही पाले जाएँ,
आओ इस शहर में एक मित्र बनायें.
यूँ तो हजारों मित्र बनाना कोई करिश्मा नहीं,
करिश्मा तो ये है कि एक ऐसा दोस्त बने,
जो साथ हो उस वक्त तुम्हारे,
जब छोड़ सब तुम्हे दूर हो जाएँ.
आओ एक ऐसा दोस्त बनायें,
सच बस एक ऐसा दोस्त बनायें.
स्वरचित)
मोहन सिंह भैंसोरा,
सेक्टर-९/८८६, रामाक्रिशनापुरम,
नई दिल्ली -११००६६.
गुम हो के रह गई दोस्ती,
आओ इस खुदगर्ज शहर में फिरसे नए दोस्त बनायें.
मौत का बहम इस शहर में,
मौसम और हवा में घुटन सी,
अब कहाँ जाके साँस ली जाये.
पेड़ सब नंगे फकीरों की तरह सहमे से,
बस तपिश है खुदगर्जी की,
कैसे धुप सही जाये.
आस्तीनों में चलो फिरसे सांप ही पाले जाएँ,
आओ इस शहर में एक मित्र बनायें.
यूँ तो हजारों मित्र बनाना कोई करिश्मा नहीं,
करिश्मा तो ये है कि एक ऐसा दोस्त बने,
जो साथ हो उस वक्त तुम्हारे,
जब छोड़ सब तुम्हे दूर हो जाएँ.
आओ एक ऐसा दोस्त बनायें,
सच बस एक ऐसा दोस्त बनायें.
स्वरचित)
मोहन सिंह भैंसोरा,
सेक्टर-९/८८६, रामाक्रिशनापुरम,
नई दिल्ली -११००६६.
मृत्यु क्या है?
मृत्यु वास्तव में कुछ नहीं, ये किसी गिनती में नहीं आती.
मैं केवल अगले कमरे में चला गया हूँ,
कुछ नहीं हुआ, कुछ भी तो नहीं हुआ,
सब कुछ वैसा ही है जैसा था.
मैं, मैं हूँ; तुम, तुम हो,
कुछ नहीं हुआ,
कुछ भी तो नहीं हुआ.
सब कुछ वैसा ही है जैसा था,
मैं, मैं हूँ; तुम,तुम हो,
कुछ नहीं बदला, कुछ नहीं हुआ.
एक साथ हमने प्रेम पूर्वक जो जीवन व्यतीत किया,
वह अनछुआ, अपरिवर्तित रहा.
हम एक दूसरे के लिए जो कुछ थे,
अभी भी वैसे ही हैं.
कुछ नहीं बदला, कुछ भी तो नहीं बदला.
मृत्यु आखिर क्या है?
बस एक साधारण सी दुर्घटना.
क्या मैं मन से केवल इसलिए दूर हो जाऊं,
कि मैं नज़र नहीं आता!
बल्कि मैं तो तुम्हारे इन्तजार में हूँ.
एक अन्तराल है कहीं बहुत ही निकट,
बिल्कुल अगले मोड़ पर.
सब कुछ ठीक है, सिवाय उन लोगों की निकटता के,
जो,
इस संसार में रह गए लोगों के लिए बेमानी है.
जब हम इस संसार से जातें हैं तो अपने साथ कुछ नहीं ले जाते,
ना अपना सामान, ना अपनी दौलत, ना अपना दिमाग और
नाही अपनी बुद्धि.
मृत्यु पर जीवन की वास्तविक विजय वही है,
जो हम पीछे छोड़ जातें हैं -
एक नाम........., एक याद........, एक छवि.
(स्वरचित)
मोहन सिंह भैंसोरा,
सेक्टर-९/८८६, रामाक्रिशनापुरम,
नई दिल्ली -११००६६.
(श्री फलिमान द्वारा स्वर्गीय एस.डी.शोरी जी की मृत्यु पर शोकाकुल परिवार एवं मित्रों को दी गई सांत्वना एवं माननीय श्री खुशवंत सिंह जी द्वारा एक लेख मैं उसका सन्दर्भ, पर आधारित)
मैं केवल अगले कमरे में चला गया हूँ,
कुछ नहीं हुआ, कुछ भी तो नहीं हुआ,
सब कुछ वैसा ही है जैसा था.
मैं, मैं हूँ; तुम, तुम हो,
कुछ नहीं हुआ,
कुछ भी तो नहीं हुआ.
सब कुछ वैसा ही है जैसा था,
मैं, मैं हूँ; तुम,तुम हो,
कुछ नहीं बदला, कुछ नहीं हुआ.
एक साथ हमने प्रेम पूर्वक जो जीवन व्यतीत किया,
वह अनछुआ, अपरिवर्तित रहा.
हम एक दूसरे के लिए जो कुछ थे,
अभी भी वैसे ही हैं.
कुछ नहीं बदला, कुछ भी तो नहीं बदला.
मृत्यु आखिर क्या है?
बस एक साधारण सी दुर्घटना.
क्या मैं मन से केवल इसलिए दूर हो जाऊं,
कि मैं नज़र नहीं आता!
बल्कि मैं तो तुम्हारे इन्तजार में हूँ.
एक अन्तराल है कहीं बहुत ही निकट,
बिल्कुल अगले मोड़ पर.
सब कुछ ठीक है, सिवाय उन लोगों की निकटता के,
जो,
इस संसार में रह गए लोगों के लिए बेमानी है.
जब हम इस संसार से जातें हैं तो अपने साथ कुछ नहीं ले जाते,
ना अपना सामान, ना अपनी दौलत, ना अपना दिमाग और
नाही अपनी बुद्धि.
मृत्यु पर जीवन की वास्तविक विजय वही है,
जो हम पीछे छोड़ जातें हैं -
एक नाम........., एक याद........, एक छवि.
(स्वरचित)
मोहन सिंह भैंसोरा,
सेक्टर-९/८८६, रामाक्रिशनापुरम,
नई दिल्ली -११००६६.
(श्री फलिमान द्वारा स्वर्गीय एस.डी.शोरी जी की मृत्यु पर शोकाकुल परिवार एवं मित्रों को दी गई सांत्वना एवं माननीय श्री खुशवंत सिंह जी द्वारा एक लेख मैं उसका सन्दर्भ, पर आधारित)
बुराँश"
चंद्रकूट पर्वत शिखर पर,
चन्द्रबदनी मंदिर की ओर,
जाते पथ के दोनों तरफ,
चैत्र या बैशाख माह की अष्टमी को,
खिल जाते हैं बुराँश के फूल,
जिन्हें देखकर यात्रीगण,
हो जाते हैं हर्षित,
माँ के दर्शनों से पूर्व.
बुराँश अपनी लाली बिखेरता,
देखता है हँसते हुए,
चन्द्रबदनी से,
गढ़वाल हिमालय को,
जैसे कर रहा हो संवाद.
हिंवाळि काँठी दिखती हैं,
दाँतों की पंक्ति की तरह,
जैसे वो भी बिखरे बुराँशों से,
हँस कर कर रही हों संवाद.
बुराँश एक ऐसा पुष्प है,
जो गंधहीन होता है,
फिर भी हर उत्तराखंडी के मन में,
पहाड़ के इस प्रिय पुष्प को,
देखने की रहती है लालसा.
उत्तराखण्ड में हर साल आते हैं बुराँश,
पहाडों को निहारने,
हम तो नहीं जाते,
बुराँशों की तरह,
न जाने क्यौं?
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(29.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
चन्द्रबदनी मंदिर की ओर,
जाते पथ के दोनों तरफ,
चैत्र या बैशाख माह की अष्टमी को,
खिल जाते हैं बुराँश के फूल,
जिन्हें देखकर यात्रीगण,
हो जाते हैं हर्षित,
माँ के दर्शनों से पूर्व.
बुराँश अपनी लाली बिखेरता,
देखता है हँसते हुए,
चन्द्रबदनी से,
गढ़वाल हिमालय को,
जैसे कर रहा हो संवाद.
हिंवाळि काँठी दिखती हैं,
दाँतों की पंक्ति की तरह,
जैसे वो भी बिखरे बुराँशों से,
हँस कर कर रही हों संवाद.
बुराँश एक ऐसा पुष्प है,
जो गंधहीन होता है,
फिर भी हर उत्तराखंडी के मन में,
पहाड़ के इस प्रिय पुष्प को,
देखने की रहती है लालसा.
उत्तराखण्ड में हर साल आते हैं बुराँश,
पहाडों को निहारने,
हम तो नहीं जाते,
बुराँशों की तरह,
न जाने क्यौं?
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(29.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
Monday, April 27, 2009
पहाड़ी गाँव
प्रकृति का आवरण ओढे,
सर्वत्र हरियाली ही हरियाली,
प्रदूषण से कोसों दूर,
कृषक हैं जिसके माली.
पक्षियों के विचरते झुण्ड,
धारे का पवित्र पानी,
वृक्षों पर बैठकर,
निकालते सुन्दर वानी.
घुगती घने वृक्ष के बीच बैठकर,
दिन दोफरी घुर घुर घुराती,
सारी के बीच काम करती,
नवविवाहिता को मैत की याद आती.
सीढीनुमा घुमावदार खेत,
भीमळ और खड़ीक की डाळी,
सरसों के फूलों का पीला रंग,
गेहूं, जौ की हरियाली.
पहाड़ की पठाळ से ढके घर,
पुराणी तिबारी अर् डि़न्डाळि,
चौक में गोरु बाछरु की हल चल,
कहीं सुरक भागती बिराळि.
आज देखने भी नहीं जा पाते,
लेकिन, आगे बढ़ते हैं पाँव,
कल्पना में दिखते हैं प्रवास में,
अपने प्यारे "पहाड़ी गाँव"
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(23.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
सर्वत्र हरियाली ही हरियाली,
प्रदूषण से कोसों दूर,
कृषक हैं जिसके माली.
पक्षियों के विचरते झुण्ड,
धारे का पवित्र पानी,
वृक्षों पर बैठकर,
निकालते सुन्दर वानी.
घुगती घने वृक्ष के बीच बैठकर,
दिन दोफरी घुर घुर घुराती,
सारी के बीच काम करती,
नवविवाहिता को मैत की याद आती.
सीढीनुमा घुमावदार खेत,
भीमळ और खड़ीक की डाळी,
सरसों के फूलों का पीला रंग,
गेहूं, जौ की हरियाली.
पहाड़ की पठाळ से ढके घर,
पुराणी तिबारी अर् डि़न्डाळि,
चौक में गोरु बाछरु की हल चल,
कहीं सुरक भागती बिराळि.
आज देखने भी नहीं जा पाते,
लेकिन, आगे बढ़ते हैं पाँव,
कल्पना में दिखते हैं प्रवास में,
अपने प्यारे "पहाड़ी गाँव"
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(23.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
जंगल जलते हैं
जल रहे हैं जंगल,
क्योंकि, ठहरे जो सरकारी,
कभी बचाते थे ग्रामवासी,
अब नहीं है भागीदारी.
हक्क हकूक उनके नहीं रहे,
अतीत का गवाह है तिलाड़ी,
ढंडक ने जन्म लिया था,
वन अधिकारी थे खिलाड़ी.
रैणी, चमोली में जंगल को,
स्व. गौरा देवी ने कटने से बचाया,
पेड़ों से चिपक कर,
वन ठेकेदार को दूर भगाया.
सीमाओं की रक्षा करके,
जो रिटायर हो जाते,
वन सरंक्षण व आग से रक्षा में,
उन्हें क्यों नहीं लगाते?
जमीन पर जो वृक्ष नहीं लगे थे,
आग लगने पर जल जाते,
नुकसान हो गया है दुगना,
वे तो यही बताते.
अन्तोगत्वा मन में,
ख्याल यही है आता,
हर साल "जंगल जलते हैं",
कौन है उनको बचाता.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(23.4.2009 को रचित)
क्योंकि, ठहरे जो सरकारी,
कभी बचाते थे ग्रामवासी,
अब नहीं है भागीदारी.
हक्क हकूक उनके नहीं रहे,
अतीत का गवाह है तिलाड़ी,
ढंडक ने जन्म लिया था,
वन अधिकारी थे खिलाड़ी.
रैणी, चमोली में जंगल को,
स्व. गौरा देवी ने कटने से बचाया,
पेड़ों से चिपक कर,
वन ठेकेदार को दूर भगाया.
सीमाओं की रक्षा करके,
जो रिटायर हो जाते,
वन सरंक्षण व आग से रक्षा में,
उन्हें क्यों नहीं लगाते?
जमीन पर जो वृक्ष नहीं लगे थे,
आग लगने पर जल जाते,
नुकसान हो गया है दुगना,
वे तो यही बताते.
अन्तोगत्वा मन में,
ख्याल यही है आता,
हर साल "जंगल जलते हैं",
कौन है उनको बचाता.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(23.4.2009 को रचित)
जनता तेरी जय हो
नेताजी नतमस्तक होकर, कर रहे करुणा पुकार,
अपना मत हमको देना, जा रहे हैं जनता के द्वार.
जनता सब कुछ जानती, महंगाई की मार,
नेता कुछ नहीं देते हैं, जनता पर हैं भार.
लोकतंत्र पर है आस्था, जो है जनता का अधिकार,
हर पांच वर्ष के लिए चुनते हैं, मत करके सरकार.
चुनाव का महासमर जारी है, कहते "जनता तेरी जय हो",
देंगे ऐसी सरकार तुम्हें, जहाँ भूख और न भय हो.
जनता तो है चाहती, बने ऐसी सरकार,
भारत अपना खूब चमके, सपने हों साकार.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(27.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
अपना मत हमको देना, जा रहे हैं जनता के द्वार.
जनता सब कुछ जानती, महंगाई की मार,
नेता कुछ नहीं देते हैं, जनता पर हैं भार.
लोकतंत्र पर है आस्था, जो है जनता का अधिकार,
हर पांच वर्ष के लिए चुनते हैं, मत करके सरकार.
चुनाव का महासमर जारी है, कहते "जनता तेरी जय हो",
देंगे ऐसी सरकार तुम्हें, जहाँ भूख और न भय हो.
जनता तो है चाहती, बने ऐसी सरकार,
भारत अपना खूब चमके, सपने हों साकार.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(27.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
मन का ऊबाल
जूता नहीं है संस्कृति,
कुंठित मन का है ऊबाल,
ख़बरों में हैं छा गए,
कुछ ज्यादा इस साल.
नेताओं पर अगर पड़ें,
उन्हें नहीं मलाल,
ख्याति है मिल जाती,
सुखद रहते हाल.
अगर कोई हमारी तरफ,
थोडा सा उठाये,
हम ना समझ को तो,
तुंरत गुस्सा आये.
बनाया था किसी ने,
पाँव में दर्द न होय,
उसे पता नहीं था,
ऐसा करेगा कोय.
एक विज्ञापन देखा,
लिखा था "जूतों का मेला",
देख रहा था बस में बैठा,
दिल्ली, सराय कालेखां पर अकेला.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(27.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
कुंठित मन का है ऊबाल,
ख़बरों में हैं छा गए,
कुछ ज्यादा इस साल.
नेताओं पर अगर पड़ें,
उन्हें नहीं मलाल,
ख्याति है मिल जाती,
सुखद रहते हाल.
अगर कोई हमारी तरफ,
थोडा सा उठाये,
हम ना समझ को तो,
तुंरत गुस्सा आये.
बनाया था किसी ने,
पाँव में दर्द न होय,
उसे पता नहीं था,
ऐसा करेगा कोय.
एक विज्ञापन देखा,
लिखा था "जूतों का मेला",
देख रहा था बस में बैठा,
दिल्ली, सराय कालेखां पर अकेला.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(27.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
जूता संस्कृति ... " बहस "
जूते चप्पलो में
हो गई बहस
छिड गई लड़ाई
लगे करने दोनों
अपनी अपनी बडाई !
चप्पले बोली ........
यदपि, देखने में हम
कोमल , नाजुक , कमजोर है
ध्यान रहे ...
हमारे किस्से जगत मशहूर है !
आम आदमी से लेकर
मंत्री संत्री , नेता हमें
अपने साथ रखने पर
मजबूर है !
नेता जी ... नेताजी तो, .. हमें
बड़े प्यार से दुलारते है पुचकारते है
और बड़े सामान के साथ
हमें पार्लियामेंट तक ले जाते है
येसा नहीं ........
हम भी आडे वक़्त उनके काम आते है !
टेलीबिजन , अखबारों में
आये दिन हमारी तस्बीरे छपती है
जब जब हम
पार्लियामेन्ट में एक दुसरे पर बरसती है !
वे जूते से बोली ..
है तुम्हरा, येसा कोई किस्सा ?
जो , संसद में लिया हो तुमने
कभी हिस्सा !
जूत्ता बोला ...
बस ... तुम में यही तो कमी है
बात को पेट में पचा नहीं पाती हो
युही खामखा ,,,
चपड चपड़ करती रहती हो !
सुनो
चाहिए हम रबड़ के हो
या हो, चाँद के
सारे मुरीद है हमारे
यंहा से वंहा तक के !
जब जब मै चलता हूँ
या चलूँगा .....
अच्हे आछो के मुँह
बंद हो जायेग
इसीलिए तो सब कहते है
यार, चांदी का मारो तो
सब काम हो जायेगे !
पटवारी से लेकर
ब्यापारी तक ,
सिपाही से लेकर
मंत्री तक
सब हमारे कर्ज़दार है
तभी तो, लोग कहते है
जूत्ता ... बड़ा दुमदार है
रही हिस्से किस्से की बात
तमाशा देखना और देखोगे
आज के बाद संसद में
तुम नहीं , हम ही हम चलेगे !
ये किस्सा
तो अपने देश में द्खोगे ही
संसार में भी नाम कमाउगा
देख लेना
दुनिया के अखबारों के
फ्रंट पेज पर अपनी तस्स्बीर छपाउगा !
देखा नहीं , इराक में क्या हुआ
बुश पर कौन चला ? .... मै
चिदम्बर, अडवानी और अब
मनमोहन पर भी कौन चला मै ?
पराशर गौर
हो गई बहस
छिड गई लड़ाई
लगे करने दोनों
अपनी अपनी बडाई !
चप्पले बोली ........
यदपि, देखने में हम
कोमल , नाजुक , कमजोर है
ध्यान रहे ...
हमारे किस्से जगत मशहूर है !
आम आदमी से लेकर
मंत्री संत्री , नेता हमें
अपने साथ रखने पर
मजबूर है !
नेता जी ... नेताजी तो, .. हमें
बड़े प्यार से दुलारते है पुचकारते है
और बड़े सामान के साथ
हमें पार्लियामेंट तक ले जाते है
येसा नहीं ........
हम भी आडे वक़्त उनके काम आते है !
टेलीबिजन , अखबारों में
आये दिन हमारी तस्बीरे छपती है
जब जब हम
पार्लियामेन्ट में एक दुसरे पर बरसती है !
वे जूते से बोली ..
है तुम्हरा, येसा कोई किस्सा ?
जो , संसद में लिया हो तुमने
कभी हिस्सा !
जूत्ता बोला ...
बस ... तुम में यही तो कमी है
बात को पेट में पचा नहीं पाती हो
युही खामखा ,,,
चपड चपड़ करती रहती हो !
सुनो
चाहिए हम रबड़ के हो
या हो, चाँद के
सारे मुरीद है हमारे
यंहा से वंहा तक के !
जब जब मै चलता हूँ
या चलूँगा .....
अच्हे आछो के मुँह
बंद हो जायेग
इसीलिए तो सब कहते है
यार, चांदी का मारो तो
सब काम हो जायेगे !
पटवारी से लेकर
ब्यापारी तक ,
सिपाही से लेकर
मंत्री तक
सब हमारे कर्ज़दार है
तभी तो, लोग कहते है
जूत्ता ... बड़ा दुमदार है
रही हिस्से किस्से की बात
तमाशा देखना और देखोगे
आज के बाद संसद में
तुम नहीं , हम ही हम चलेगे !
ये किस्सा
तो अपने देश में द्खोगे ही
संसार में भी नाम कमाउगा
देख लेना
दुनिया के अखबारों के
फ्रंट पेज पर अपनी तस्स्बीर छपाउगा !
देखा नहीं , इराक में क्या हुआ
बुश पर कौन चला ? .... मै
चिदम्बर, अडवानी और अब
मनमोहन पर भी कौन चला मै ?
पराशर गौर
छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़
प्यारे पहाड़ से दूर, खुश कहो या मजबूर, अनुभूति अपनी अपनी, हो सकता है दूर पर्वास में रहने के कारण "पहाड़ के प्रति प्रेम" उमड़ता हो.....कवि मन होता ही ऐसा है जो कल्पना में जाता रहता है जन्मभूमि की ओर......लेकिन लेखनी लिख देती है ई-बुक पर ऊंगलियों के इशारे से.......जो कवि कहना चाहता है.
"छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़"
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं,
ऊ प्यारु पहाड़-२
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़-२
कूड़ी छुटि पुंगड़ि छुटि,
छुटिगि सब्बि धाणी,
कखन पेण हे लाठ्याळौं,
छोया ढ़ुँग्यौं कू पाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
मन घुटि घुटि मरिगि,
खुदेणु पापी पराणी,
ब्वै बोन्नि छ सुण हे बेटा,
कब छैं घौर ल्हिजाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
भिन्डि दिनु बिटि पाड़ नि देखि,
तरस्युं पापी पराणी,
कौथगेर मैनु लग्युं छ,
टक्क वखि छ जाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं.....
बुराँश होला बाटु हेन्ना,
हिंवाळि काँठी देखणा,
उत्तराखण्ड की स्वाणि सूरत,
देखि होला हैंसणा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
दुःख दिदौं यू सब्यौं कू छ,
अपणा मन मा सोचा,
मन मा नि औन्दु ऊमाळ,
भौंकुछ न सोचा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
जनु भी सोचा सुणा हे दिदौं,
छट्ट छुटिगि, ऊ प्यारु पहाड़,
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(24.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
"छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़"
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं,
ऊ प्यारु पहाड़-२
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़-२
कूड़ी छुटि पुंगड़ि छुटि,
छुटिगि सब्बि धाणी,
कखन पेण हे लाठ्याळौं,
छोया ढ़ुँग्यौं कू पाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
मन घुटि घुटि मरिगि,
खुदेणु पापी पराणी,
ब्वै बोन्नि छ सुण हे बेटा,
कब छैं घौर ल्हिजाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
भिन्डि दिनु बिटि पाड़ नि देखि,
तरस्युं पापी पराणी,
कौथगेर मैनु लग्युं छ,
टक्क वखि छ जाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं.....
बुराँश होला बाटु हेन्ना,
हिंवाळि काँठी देखणा,
उत्तराखण्ड की स्वाणि सूरत,
देखि होला हैंसणा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
दुःख दिदौं यू सब्यौं कू छ,
अपणा मन मा सोचा,
मन मा नि औन्दु ऊमाळ,
भौंकुछ न सोचा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....
जनु भी सोचा सुणा हे दिदौं,
छट्ट छुटिगि, ऊ प्यारु पहाड़,
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(24.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
तेरी नथुलि
धन तेरी नथुलि,
धन तेरु मिजाज,
रंग रूप देखि तेरु,
खट्ट खौळेग्यौं आज....
तेरि नथुलि देखि मैकु,
खुद लागिगी आज,
प्यारा उत्तराखंड कू,
बदलिगी मिजाज.....
ढै तोळा नाथुलि तेरि,
नाक मा बिसार,
हेरि हेरि रंगमता,
बैख देख हपार......
जब जब नथुलि तेरि,
नाक मा हल्दी,
मेरी ज्युकड़ी कनुकै बतौँ,
धक् धक् करदी.......
कबरी होन्दि थै नथुलि,
हमारा मुल्क की शान,
जथ्गा बड़ी होन्दि नथुलि,
वथगा बड़ु मान......
वक्त बदली नथुलि हर्ची,
मेरा प्यारा मुलक,
कुबानी की नई नथुलि,
ऐगी सुरक सुरक.......
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(21.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
धन तेरु मिजाज,
रंग रूप देखि तेरु,
खट्ट खौळेग्यौं आज....
तेरि नथुलि देखि मैकु,
खुद लागिगी आज,
प्यारा उत्तराखंड कू,
बदलिगी मिजाज.....
ढै तोळा नाथुलि तेरि,
नाक मा बिसार,
हेरि हेरि रंगमता,
बैख देख हपार......
जब जब नथुलि तेरि,
नाक मा हल्दी,
मेरी ज्युकड़ी कनुकै बतौँ,
धक् धक् करदी.......
कबरी होन्दि थै नथुलि,
हमारा मुल्क की शान,
जथ्गा बड़ी होन्दि नथुलि,
वथगा बड़ु मान......
वक्त बदली नथुलि हर्ची,
मेरा प्यारा मुलक,
कुबानी की नई नथुलि,
ऐगी सुरक सुरक.......
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(21.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
"पहाड़ की नारी"
कमर तोड़ मेहनत करना,
सिर पर ढोना बोझ भारी,
पहाड़ों पर उतरते चढ़ते,
बीतता है जीवन तेरा,
हे पहाड़ की नारी..
घने और खतरनाक जंगलों से,
घास, पात और लकड़ी लाना,
कभी कभी बाघ और रीछ से,
जान बचाने के लिए भिड़ जाना...
सामाजिक बुराईयों से,
मिलकर संघर्ष करना,
घर परिवार की देख रेख,
समर्पित भाव से करना....
सीमाओं की रक्षा में,
आजीविका के लिए प्रवास में,
गए जीवनसाथी की इंतज़ार में,
बीत जाता है तेरा जटिल जीवन,
तू महान है पहाड़ की नारी....
संघर्ष आपका सफल रहा,
तभी तो शैल पुत्र,
आज ऊंचा कर रहे हैं,
आपका और जन्मभूमि का नाम,
देश और दुनियां में,
कवि, लेखक,खिलाड़ी, सैनिक अफसर,
पर्यावरण रक्षक और अफसर बनकर,
तू सचमुच महान है,
और तेरा संघर्ष,
हे "पहाड़ की नारी".
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(22.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
सिर पर ढोना बोझ भारी,
पहाड़ों पर उतरते चढ़ते,
बीतता है जीवन तेरा,
हे पहाड़ की नारी..
घने और खतरनाक जंगलों से,
घास, पात और लकड़ी लाना,
कभी कभी बाघ और रीछ से,
जान बचाने के लिए भिड़ जाना...
सामाजिक बुराईयों से,
मिलकर संघर्ष करना,
घर परिवार की देख रेख,
समर्पित भाव से करना....
सीमाओं की रक्षा में,
आजीविका के लिए प्रवास में,
गए जीवनसाथी की इंतज़ार में,
बीत जाता है तेरा जटिल जीवन,
तू महान है पहाड़ की नारी....
संघर्ष आपका सफल रहा,
तभी तो शैल पुत्र,
आज ऊंचा कर रहे हैं,
आपका और जन्मभूमि का नाम,
देश और दुनियां में,
कवि, लेखक,खिलाड़ी, सैनिक अफसर,
पर्यावरण रक्षक और अफसर बनकर,
तू सचमुच महान है,
और तेरा संघर्ष,
हे "पहाड़ की नारी".
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(22.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
Tuesday, April 14, 2009
Tuesday, April 7, 2009
Monday, April 6, 2009
Community Stories:-1
Community Stories:-1
The Road between Jaspur and Gweel is Still Troublesome
Bhishma Kukreti (Jaspurwal)
(My one of grand mothers (father’s bodi/tai) Kwanra Devi (wife of late Sheesh Ram Ji) told this tale. For providing a message , I had to travel from Jaspur to Gweel ( Malla Dhangu, Pauri Garhwal) and come back with reply for the message. Though, the distance between Gweel and Jaspur is hardly two or two and half kilometers but the road and going down from Jaspur and then coming up from Gweel to Jaspur is terrible and tiresome. I asked grand mom about who built that very bad , terrible, tedious tiresome, road from Jaspur to Gweel . Grand mom Kwanra Devi told this tale)
The incident might be before three hundred years back when there was only Jaspur village in the area of Malla Dhangu. There was no place as such Gweel in Malla Dhangu. One day, great grand mother of Kukretis went to gaushala (cow pen or byre) for milking cow. She untied cow and calf free from keel-jyud (big wooden nail -tether ). As soon as the calf got untied he ran away from byre. Looking at the running calf his mother became restless and she also ran away after the calf. Frightened, our grand mother with empty milk-vessel (parothi ) also ran after them. While running after calf and cow, she called her husband. Now the situation was this that calf was running fast and cow was running after the calf. Grand mother and grand pa were running after calf and cow. The calf was running towards east south of Jaspur, up and down, through jungle, through rivulet , through bhel (slope of hill) and like that.
After many hours the calf reached a place, which was plain and was surrounded by three rivulets . The calf was tired and he stayed there, his mother also reached there and started licking and her child. After a few minutes , following calf-cow, grand mom and grand pa also reached there. All were tired.
After taking some rest, grand mom milked the cow. The place was very even. After milking the cow, grand mother told her husband , “ I milked the cow here, therefore, we shall call this place Gweel .” .Then after they all came back to Jaspur following same tedious path made by calf and others running after him. From there on the Jaspur inhabitants started coming to place named Gweel by grand mom by this path. Later on they built many cow pens at this place Gweel. After many generations and after the Gurkhyani era, our elder grand pa built many cow pins, new house in Gweel like a small forte (kwatha-bhitar), temple and started to live there but never leave to walk on the road made by the calf. No body thought to change the tedious, tiresome, troublesome path from Jaspur to Gweel.
After finishing the community tale, grand ma Kwanra Devi told,’ myar buba! This the story of road between Jaspur and Gweel. This is not the story of Jaspur and Gweel but in every village of world that we walk on the tedious roads made by cows and calves.”
Moral of the story is that when we go on the beaten path we walk on the tedious path. So it is better that we make new paths
( From: Salan baten lok katha : Tales from Salan Garhwal)
Copyright@ Bhishma Kukreti/April/2009/Mumbai .
The Road between Jaspur and Gweel is Still Troublesome
Bhishma Kukreti (Jaspurwal)
(My one of grand mothers (father’s bodi/tai) Kwanra Devi (wife of late Sheesh Ram Ji) told this tale. For providing a message , I had to travel from Jaspur to Gweel ( Malla Dhangu, Pauri Garhwal) and come back with reply for the message. Though, the distance between Gweel and Jaspur is hardly two or two and half kilometers but the road and going down from Jaspur and then coming up from Gweel to Jaspur is terrible and tiresome. I asked grand mom about who built that very bad , terrible, tedious tiresome, road from Jaspur to Gweel . Grand mom Kwanra Devi told this tale)
The incident might be before three hundred years back when there was only Jaspur village in the area of Malla Dhangu. There was no place as such Gweel in Malla Dhangu. One day, great grand mother of Kukretis went to gaushala (cow pen or byre) for milking cow. She untied cow and calf free from keel-jyud (big wooden nail -tether ). As soon as the calf got untied he ran away from byre. Looking at the running calf his mother became restless and she also ran away after the calf. Frightened, our grand mother with empty milk-vessel (parothi ) also ran after them. While running after calf and cow, she called her husband. Now the situation was this that calf was running fast and cow was running after the calf. Grand mother and grand pa were running after calf and cow. The calf was running towards east south of Jaspur, up and down, through jungle, through rivulet , through bhel (slope of hill) and like that.
After many hours the calf reached a place, which was plain and was surrounded by three rivulets . The calf was tired and he stayed there, his mother also reached there and started licking and her child. After a few minutes , following calf-cow, grand mom and grand pa also reached there. All were tired.
After taking some rest, grand mom milked the cow. The place was very even. After milking the cow, grand mother told her husband , “ I milked the cow here, therefore, we shall call this place Gweel .” .Then after they all came back to Jaspur following same tedious path made by calf and others running after him. From there on the Jaspur inhabitants started coming to place named Gweel by grand mom by this path. Later on they built many cow pens at this place Gweel. After many generations and after the Gurkhyani era, our elder grand pa built many cow pins, new house in Gweel like a small forte (kwatha-bhitar), temple and started to live there but never leave to walk on the road made by the calf. No body thought to change the tedious, tiresome, troublesome path from Jaspur to Gweel.
After finishing the community tale, grand ma Kwanra Devi told,’ myar buba! This the story of road between Jaspur and Gweel. This is not the story of Jaspur and Gweel but in every village of world that we walk on the tedious roads made by cows and calves.”
Moral of the story is that when we go on the beaten path we walk on the tedious path. So it is better that we make new paths
( From: Salan baten lok katha : Tales from Salan Garhwal)
Copyright@ Bhishma Kukreti/April/2009/Mumbai .
Hindi Poetries by Gadhmaunis -2
Hindi Poetries by Gadhmaunis -2
Champawat- Kumaun in Hari Mridul’s Poetry
Bhishma Kukreti
Kumaun region of Uttarakhand state has gifted hundred of creative to Hindi literature . The gem of Kumaun, Shri Joshi ex-editor of famous hindi magazine of DharmaYug who initiated the uses of psychological treatments in Hindi stories. His way of narrating stories on the platform of psychology, spirituality and philosophy is marvelous piece of recounting the story in different style and format. In my childhood as early teen age , when it was difficult to digest the philosophy or psychology at that age , I could understand the stories of Joshi because of his blending Kumauniness or Pahadipan in his stories.
Who can forget Sumitra Nandan Pant one of the trio Suryakant Tripathi Nirala and Mahadvei Verma famous for ‘Chayabadi’ poetries in Hindi world. We may find Kumauniness in his each verse and in his line of poetry. Natural beauty of Kumaun hill was fundamental base for creating such marvelous verses by pant. Pant is also famous for poetry critic in Hindi . He wrote memorable commentary on critics of poetry in his introduction for Hindi poetry collection ‘Pallav’ .
Who does not know Shivani (Gaura Pandey, Pant ) for her constructing stories blended with culture, art, agriculture, eating habit habits, vibrancy, heavenly beauty, social structures, native knowledge, astrology knowledge, world of Kumauni women, and what not of Kumaun region in her internationally acclaimed stories. If there is no Kumaun in her story, it means it is not written by her but some body as ghost writer might have written for her.
P.C Joshi one of the first communist comrades of India used to deliver his speeches with full of proverbs of Kumaun (translated either in English or Hindi). It is said that his style of blending of ‘Kumaunipan’ into social issues was the main factors behind his popularity.
Himanshu Joshi, Batrohi, Shailani, and many more belong to Kumaun who immensely contributed for Hindi literature . All these writers could be famous story tellers just because they brought Kumaun in their each story. Kumaun and Kumaunipan was the soul of their each famous stories.
Hari Mridul Pandey born in Bagoti (Champawat district of Uttarakhand) in 1969, has also legacy of the above writer for blending Kumaunipan with the subject in his Hindi poetries.
Hari Mriul Pandy uses Kumauni symbols, sign, marks, proverbs (translated form), relationship, social bindings of Kumaun in his poetries and brings out the philosophical and spiritual synthesis of Kumaun in his poetries written for common men of metros.
He has written Hindi poems specific to the geography, flora and fauna, relationship of Kumaun .
Ama ki ankhen, nyauli, ghughti, panch tatwa ki kavita, kargil, bail, kali ganga, bubu, are spectacular pieces of Hindi poetry of international standard but in each poetry you may find Kumaun, relationship of Kurmanchal, Champawat, geography of Champawat, flora or faun of Kumaun, philosophy and folks of Kumaun or spirituality of Kurmanchal.
It seems that though Hari Mridul Pandey of living in Mumbai, he never forgets his village, his narrow of village Bagoti, contours of Champawat, vibrancy of Kali river, while conceiving, conceptualizing and creating verses .
Copyright@ Bhishma Kukreti/April/2009/Mumbai
Champawat- Kumaun in Hari Mridul’s Poetry
Bhishma Kukreti
Kumaun region of Uttarakhand state has gifted hundred of creative to Hindi literature . The gem of Kumaun, Shri Joshi ex-editor of famous hindi magazine of DharmaYug who initiated the uses of psychological treatments in Hindi stories. His way of narrating stories on the platform of psychology, spirituality and philosophy is marvelous piece of recounting the story in different style and format. In my childhood as early teen age , when it was difficult to digest the philosophy or psychology at that age , I could understand the stories of Joshi because of his blending Kumauniness or Pahadipan in his stories.
Who can forget Sumitra Nandan Pant one of the trio Suryakant Tripathi Nirala and Mahadvei Verma famous for ‘Chayabadi’ poetries in Hindi world. We may find Kumauniness in his each verse and in his line of poetry. Natural beauty of Kumaun hill was fundamental base for creating such marvelous verses by pant. Pant is also famous for poetry critic in Hindi . He wrote memorable commentary on critics of poetry in his introduction for Hindi poetry collection ‘Pallav’ .
Who does not know Shivani (Gaura Pandey, Pant ) for her constructing stories blended with culture, art, agriculture, eating habit habits, vibrancy, heavenly beauty, social structures, native knowledge, astrology knowledge, world of Kumauni women, and what not of Kumaun region in her internationally acclaimed stories. If there is no Kumaun in her story, it means it is not written by her but some body as ghost writer might have written for her.
P.C Joshi one of the first communist comrades of India used to deliver his speeches with full of proverbs of Kumaun (translated either in English or Hindi). It is said that his style of blending of ‘Kumaunipan’ into social issues was the main factors behind his popularity.
Himanshu Joshi, Batrohi, Shailani, and many more belong to Kumaun who immensely contributed for Hindi literature . All these writers could be famous story tellers just because they brought Kumaun in their each story. Kumaun and Kumaunipan was the soul of their each famous stories.
Hari Mridul Pandey born in Bagoti (Champawat district of Uttarakhand) in 1969, has also legacy of the above writer for blending Kumaunipan with the subject in his Hindi poetries.
Hari Mriul Pandy uses Kumauni symbols, sign, marks, proverbs (translated form), relationship, social bindings of Kumaun in his poetries and brings out the philosophical and spiritual synthesis of Kumaun in his poetries written for common men of metros.
He has written Hindi poems specific to the geography, flora and fauna, relationship of Kumaun .
Ama ki ankhen, nyauli, ghughti, panch tatwa ki kavita, kargil, bail, kali ganga, bubu, are spectacular pieces of Hindi poetry of international standard but in each poetry you may find Kumaun, relationship of Kurmanchal, Champawat, geography of Champawat, flora or faun of Kumaun, philosophy and folks of Kumaun or spirituality of Kurmanchal.
It seems that though Hari Mridul Pandey of living in Mumbai, he never forgets his village, his narrow of village Bagoti, contours of Champawat, vibrancy of Kali river, while conceiving, conceptualizing and creating verses .
Copyright@ Bhishma Kukreti/April/2009/Mumbai
Hindi Poetry by Gadhmaunis -1
Hindi Poetry by Gadhmaunis -1
Safedi Men Chhupa Kala: A poetry collection about common man
Commentary by Nida Fazali
Translation by Bhishma Kukreti
Whenever Hari Mridul Pandey meets me I find him agile and energetic but at the same time, a seriousness covers his swiftness and inside power . I was not knowing how come a shyness and outgoing personality can live together. When I started reading his Hindi poetry collection ‘ Safedi men Kala’ (blackness in whiteness) created by Hari Mridul Pandey , I understood very well that his sensitivity towards common man tends him to be serious and leaving agility behind. The name of collection is itself that he is keeping agility and soberness together. Bhartiya Patrakar Vikash Parishad awarded him by Himanshu Rai Purushkar for his film journalism. Maharashtra Hindi Sahitya Academy honored him by Sant Namdev Purushkar for his poetry collection‘ Safedi men Kala. He is also awarded for his this collection as Hemant Smriti Purushkar by a socio-literature organization. I am not a commentator on poetry . He still has a rural Kumauni innocence inside him and you will experience that rural virtuousness in his each verse of poetry too. I do commentary on Garhwali language poetry in Internet medium just to achieve one single goal and that is for making awareness for Garhwali literature and making my doodhboli (mother-tongue) a language as famous or acceptable as Hindi or English among my next generation scattered in various corners of India and abroad. Hari Mridul sent me his book for commentary but I feel that I shall do injustice not to Hari Pandey but to his poems, which are gems of Hindi literature. Therefore, I am offering you the commentary of Nadi Fazali an expert of poetry, Hari belongs to village Bagoti , Champaran district of Uttarakhand and is born in 1969. When Pandey was twenty three year old, he sent his poetries to Nagarjun- commonly called Nagarjun Baba and a famous name in Hindi critics. Nagarjun wrote for Hari‘s poetry
Dear Hari Mridul ! Your poems are fresh as morning buds and I am sure you will go far and farer ahead of your contemporaries ---Bhishma Kukreti).
Hari Mridul is a complete human being . Hari lives in metro (Mumbai) but still, he is innocent villager in Mumbai and not a metro lover. Mumbai is such a metro, which brings emptiness in its inhabitants , Mumbai forces the person to be uprooted from its native and nativity. However, Mumbai is helpless in snatching the love of Hari for his village Bagoti, his late grand ma and pa; hilly season , ghughati a type of pigeon of Kumaun, Kumauni folk songs and tales and his innocent but very effective way of communication. They all are his intimated ones and dwell every moment in his unpolluted soul. The famous English poet of early years of last century Auden ,once, said, “ There is a village within in all poet.” As Auden could see the disorder of a common man in London, Hari could experience the pain of common man in metro city . There are many similarities in experiencing the metro between Auden and Mridul. The following classic poems of Hari Mridul remind me the experiences of Auden for common men of London:
Ablation ki bhid
Na jane kahan se samne aa gayi
Aur dekhte hi dekhte main
(Shavashan)
Use heroine ka dukh dekhkar glycerin ki badi shishi
Yad ayee
Hero ki abrader dekhkar nakli bandook
(Spotboy)
His poems are witness that Hari has been experiencing countless anguish, disorder, of Mumbai metro as common man. That is why Pandey could express so well, with so simplicity the pain of young generation. In his poems, instead of modern intellectual complexity and motionlessness, we find an energetic and dynamic flow as in the flow of river. There is inquisitiveness, snooping, nosiness, prying or curiosity in Heri’s eyes as found in a child’s eyes. There is straightforwardness, effortlessness, ease, simplicity in his all poems as we may experience the ease in the fly of birds. You will experience the merging, , combination, blending, muddling up of words and thought in his modern styled poems as we experience in the construction, edifying, beatification, garnishing , frilling, , flow , gushing, streaming in folk-songs. We do not find this blend in other contemporary poets of Hari Mridul.
There is modern beautification Pandey’s poems but without any compromise with morality, his social responsibility. Pandey is expert of exclusive experimentations in his ghazals. In his many ghazals, he kept blank for the second part that readers has to fill the blank space line. This experimentation is marvelous piece for Hindi poetry. This space filling facility for readers compel the readers for expanding the poetry by them and not by the poet. Providing the space for expanding the imagination of readers is definitely, the specialty or expertise of Hari Mridul.
When there is space between the two verses , both the verses create the effect of friction between the two flint stones and the poem provide the energy to the readers as friction of two flint stones generate sparks .
Ched gine the parson chah
Aj mile chattis
Hatprabh hoon
Ek hi din kaise ho gaye tees
Now here is the space and a new verse starts , which has to meet the upper poetry and create the sparks in the mind of readers:
To pahni hai yah baniyan
Ris raha yahin se yah jeewan
After, ris raha jeewan , Hari left the gap to be filled by readers and readers has to expand the imagination .
His symbols, pictoriogram, icons, signs, hint, allusions are simple but very effective as we find Kabeer ‘s poetry.
The poet is from Kumauni the beautiful part of mid Himalaya. Kumaun is famous for its vibrancy, energy, natural beauty, human beauty, rivers, rivulets, wild animals, birds, and the simplicity of human being. Hari Mridul could never forget his village Bagot and he narrates his village Bagot in his many poems directly or indirectly. The shadow of Bagot is visible in his most of the poems. Mridul takes you on the roads of Mumbai but at the same time he will be taking the banner with him displaying his village Bagot, experiences of love given by his grand mother and grand father, the story tellers off Kumaun, ghughati of Gadhmaun,. This the expertise of Hari Mridul
This friction of his being in metro Mumbai and not forgetting his village, Kumaun, Himalayas and its flora and fauna makes a special blend and that makes Hari Mridul’s poems different than his contemporary poets. Pandey shows the pain of metro and struggle of common man through many symbols of hills of Kumaun.
Safedi Men Chhupa Kala: A poetry collection about common man
Commentary by Nida Fazali
Translation by Bhishma Kukreti
Whenever Hari Mridul Pandey meets me I find him agile and energetic but at the same time, a seriousness covers his swiftness and inside power . I was not knowing how come a shyness and outgoing personality can live together. When I started reading his Hindi poetry collection ‘ Safedi men Kala’ (blackness in whiteness) created by Hari Mridul Pandey , I understood very well that his sensitivity towards common man tends him to be serious and leaving agility behind. The name of collection is itself that he is keeping agility and soberness together. Bhartiya Patrakar Vikash Parishad awarded him by Himanshu Rai Purushkar for his film journalism. Maharashtra Hindi Sahitya Academy honored him by Sant Namdev Purushkar for his poetry collection‘ Safedi men Kala. He is also awarded for his this collection as Hemant Smriti Purushkar by a socio-literature organization. I am not a commentator on poetry . He still has a rural Kumauni innocence inside him and you will experience that rural virtuousness in his each verse of poetry too. I do commentary on Garhwali language poetry in Internet medium just to achieve one single goal and that is for making awareness for Garhwali literature and making my doodhboli (mother-tongue) a language as famous or acceptable as Hindi or English among my next generation scattered in various corners of India and abroad. Hari Mridul sent me his book for commentary but I feel that I shall do injustice not to Hari Pandey but to his poems, which are gems of Hindi literature. Therefore, I am offering you the commentary of Nadi Fazali an expert of poetry, Hari belongs to village Bagoti , Champaran district of Uttarakhand and is born in 1969. When Pandey was twenty three year old, he sent his poetries to Nagarjun- commonly called Nagarjun Baba and a famous name in Hindi critics. Nagarjun wrote for Hari‘s poetry
Dear Hari Mridul ! Your poems are fresh as morning buds and I am sure you will go far and farer ahead of your contemporaries ---Bhishma Kukreti).
Hari Mridul is a complete human being . Hari lives in metro (Mumbai) but still, he is innocent villager in Mumbai and not a metro lover. Mumbai is such a metro, which brings emptiness in its inhabitants , Mumbai forces the person to be uprooted from its native and nativity. However, Mumbai is helpless in snatching the love of Hari for his village Bagoti, his late grand ma and pa; hilly season , ghughati a type of pigeon of Kumaun, Kumauni folk songs and tales and his innocent but very effective way of communication. They all are his intimated ones and dwell every moment in his unpolluted soul. The famous English poet of early years of last century Auden ,once, said, “ There is a village within in all poet.” As Auden could see the disorder of a common man in London, Hari could experience the pain of common man in metro city . There are many similarities in experiencing the metro between Auden and Mridul. The following classic poems of Hari Mridul remind me the experiences of Auden for common men of London:
Ablation ki bhid
Na jane kahan se samne aa gayi
Aur dekhte hi dekhte main
(Shavashan)
Use heroine ka dukh dekhkar glycerin ki badi shishi
Yad ayee
Hero ki abrader dekhkar nakli bandook
(Spotboy)
His poems are witness that Hari has been experiencing countless anguish, disorder, of Mumbai metro as common man. That is why Pandey could express so well, with so simplicity the pain of young generation. In his poems, instead of modern intellectual complexity and motionlessness, we find an energetic and dynamic flow as in the flow of river. There is inquisitiveness, snooping, nosiness, prying or curiosity in Heri’s eyes as found in a child’s eyes. There is straightforwardness, effortlessness, ease, simplicity in his all poems as we may experience the ease in the fly of birds. You will experience the merging, , combination, blending, muddling up of words and thought in his modern styled poems as we experience in the construction, edifying, beatification, garnishing , frilling, , flow , gushing, streaming in folk-songs. We do not find this blend in other contemporary poets of Hari Mridul.
There is modern beautification Pandey’s poems but without any compromise with morality, his social responsibility. Pandey is expert of exclusive experimentations in his ghazals. In his many ghazals, he kept blank for the second part that readers has to fill the blank space line. This experimentation is marvelous piece for Hindi poetry. This space filling facility for readers compel the readers for expanding the poetry by them and not by the poet. Providing the space for expanding the imagination of readers is definitely, the specialty or expertise of Hari Mridul.
When there is space between the two verses , both the verses create the effect of friction between the two flint stones and the poem provide the energy to the readers as friction of two flint stones generate sparks .
Ched gine the parson chah
Aj mile chattis
Hatprabh hoon
Ek hi din kaise ho gaye tees
Now here is the space and a new verse starts , which has to meet the upper poetry and create the sparks in the mind of readers:
To pahni hai yah baniyan
Ris raha yahin se yah jeewan
After, ris raha jeewan , Hari left the gap to be filled by readers and readers has to expand the imagination .
His symbols, pictoriogram, icons, signs, hint, allusions are simple but very effective as we find Kabeer ‘s poetry.
The poet is from Kumauni the beautiful part of mid Himalaya. Kumaun is famous for its vibrancy, energy, natural beauty, human beauty, rivers, rivulets, wild animals, birds, and the simplicity of human being. Hari Mridul could never forget his village Bagot and he narrates his village Bagot in his many poems directly or indirectly. The shadow of Bagot is visible in his most of the poems. Mridul takes you on the roads of Mumbai but at the same time he will be taking the banner with him displaying his village Bagot, experiences of love given by his grand mother and grand father, the story tellers off Kumaun, ghughati of Gadhmaun,. This the expertise of Hari Mridul
This friction of his being in metro Mumbai and not forgetting his village, Kumaun, Himalayas and its flora and fauna makes a special blend and that makes Hari Mridul’s poems different than his contemporary poets. Pandey shows the pain of metro and struggle of common man through many symbols of hills of Kumaun.
Thursday, April 2, 2009
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