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Monday, January 4, 2010

"तस्वीर"

मेरी देखकर बनी थी वो,
जीवन भर के लिए साथी,
कागज पर नहीं, साक्षात्,
आज याद है उभर आती.

जीवन चलता रहा,
और तस्वीर बदलती रही,
आईने ने मुझसे कहा,
तुम आज नहीं हो वही.

स्वर्गवासी पिता जी की तस्वीर,
निहारता हूँ जब-जब,
फिर ख्याल आता है मन में,
वे मेरी यादों में बसे हैं अब.

एक दिन ऐसा आएगा,
मेरी तस्वीर, लटकी होगी दिवार पर,
खामोश! कुछ नहीं कहेगी,
देखेंगे परिजन और मित्र जीवन भर.

तस्वीर(शरीर) तो तस्वीर होती है,
एक दिन मिटटी में मिल जाती है,
उसमें बसा इंसान चला जाता है,
उसकी अदाओं की याद आती है.

कवि:जगमोहन सिंह जयारा "ज़िग्यांसू"
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
१३.१२.०९

1 comment:

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