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Sunday, July 26, 2015
कैकै मंथरा संवाद (1940 से पैलाकि कविता )
रचना--
बलदेव प्रसाद नौटियाल
(कड़ाकोट , गग्वाड़स्यूं , 1895 -1981 )
( इंटरनेट प्रस्तुति - भीष्म कुकरेती )
चुप क्या छै तु , बोल क्या ब्वलदी ?
रज्जा को ज्यु किछ त नि होयो !
गुमसुम क्या छे तु , म्यरि मंथरा
हैं ! रोण त नि छै लगीं तु छोरी ?
मंथरा हौर गुमसुम होय दण मण रोय
चल्यतर लगि कन्न
गंगजोण लगि उगसासि ल्हेण
कनि बौळेय स्या आग लगौण्या !
र्वै र्वै (र् वै ) कि वीन आँखि लाल कैनि
मुंड पकड़िक वा खड़ी होय
उमाळ भरेय बोल नि सअकी
आंख्यों बिटि फिर , ढांडो पोड़े
बुका बुकि कैक सो धां वा रोय
जनु वींको क्वी मोरी होय
धुक धुकि लगौण्या संवाद बिंगौण्या
इनि बि ह्वूंदन दूद की माखी तिरया।
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