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Tuesday, July 2, 2013

लोला अब कैथें खुज्यान्दु!!!

मन रै कख-कख छै जांदू,
लोला अब कैथें खुज्यान्दु,
सरग न सबि सोरि-पोंछि,
अपणु-परया, क्वी त रान्दु,
मन रै कख......................

पाड़ सियूँ छौ निचंद,
सुपन्यो वलि स्वाणी निंद,
यनि ऐ बगतै कि मार,
हिलि ग्ये बद्री-केदार,
फेर कै थैं धै लगान्दु,
मन रै .............................

कैमा जैकि रोण तिन,
विपदा कै सुणोंण तिन,
आंख्यों पाणि पोछ लोला,
अफु थैं अफ़ि बुथ्योंण तिन,
गयुं, बौड़ी नि आन्दु,
मन रै .............................

चखुला घोलूँ गैनि सब,
त्येरु मुलुक, त्येरि लडै अब,
रुसयाँ दिब्तों मनै कि,
चड़ी जा स्यी उकाल अब,
बगत त्वै स्ये यु हि च चांदू,
मन रै .............................

रचना : विजय गौड़
कविता संग्रह, "रैबार" से
२८।०६।२०१३

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