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Wednesday, September 29, 2010

बसगाळ्या बरखा

चौक मा चचेन्डी, तोमड़ी लगिं,
कुयेड़ी लगिं घनघोर,
तितरू बासणु गौं का न्योड़ु,
द्योरू होयुं अंध्याघोर.

मनखी बैठ्याँ भितर फुंड,
बरखा लगिं झकझोर,
फूल्टी भरी ऊस्यौण लग्याँ,
मुंगरी, गौथ अर तोर.

हरीं भरीं दिखेण लगिं,
कोदा झंगोरा की सार,
डांडी कांठ्यौं मा छयुं छ,
संगति हर्युं रंग हपार.

रसमसु होयुं छ द्योरू,
बगदा बथौं कू फुम्फ्याट,
कखि दूर सुणेण लग्युं,
गाड गद्न्यौं कू सुंस्याट.

विरह वेदना मन मा लगिं,
पति जौंका परदेश,
देवतौं छन मनौण लगिं,
कब बौड़ि आला गढ़देश.

छोरा छन कौंताळ मचौणा,
ऐगि "बसगाळ्या बरखा",
दादा दादी बोन्न लग्याँ,
हे बेटों भितर सरका.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(१.८.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....

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